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________________ १२० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ परिधिमें आता है तथा ज्ञानावरणादिकर्मरूप परिणत उन वर्गणाओंका आत्माके साथ उस सम्पर्कके यथासम्भव अन्तर्महर्तसे लेकर सत्तर कोढ़ाकोढ़ी सागर पर्यन्त यथायोग्य काल तक बने रहने की योग्यताका विकास स्थितिबन्धकी और उनमें जीवको स्वकीय फल प्रदान करने की योग्यताका विकास अनुभागबन्धकी परिधिमें आते हैं । इससे निर्णीत होता है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप योगके आधारपर कर्मवर्गणाओंके आत्माके साथ प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होते हैं, स्थितिबन्ध और अनभागबन्ध नहीं होते। वे दोनों बन्ध उस-उस कषायके उदयमें यथायोग्य नोकर्मोंके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप राग-द्वेषके आधारपर ही होते हैं । आगममें जो प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धको योगके आधारपर व स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धको कषायके आधारपर बतलाया गया है उसका यही अभिप्राय है । २. आगममें स्थितिबन्धका काल कषायके सद्भावमें सामान्यरूपसे कम-से-कम अन्तमुहूर्त बतलाया गया है व विशेषरूपसे वेदनीयकर्मका १२ मुहूर्त, नाम और गोत्रका आठ मुहूर्त बतलाकर शेष कर्मोंका अन्तमुहूर्त बतलाया गया है जबकि कषायके अभावमें सातावेदनीयकर्मके बन्धका काल उन कर्मवर्गणाओंका आत्माके साथ सम्पर्क होने व उनकी समाप्ति होने रूपमें एक समय ही सिद्ध होता है। इसलिए स्थितिबन्धके बिना ११वें, १२वें और १३वें गुणस्थानोंमें बँधनेवाले सातावेदनीयकर्मकी उत्पत्ति और समाप्तिका काल एक समय मान्य करना ही यक्त है। फलतः गोम्मटसार कर्मकाण्डकी गाथा १०२ और उसकी संस्कृतटीकामें उन गुणस्थानोंम सातावेदनीयकर्म के बन्धको जो एक समयकी स्थिति वाला बतलाया गया है उसका सम्बन्ध प्रकृतिबन्धसे ही समझना चाहिए, क्योंकि कषायका अभाव होनेसे वहाँ स्थितिबन्धका होना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार कषायका अभाव होनेसे वहाँ जब स्थितिबन्ध नहीं होता तो अनुभागबन्ध भी नहीं हो सकता है, क्योंकि वह भी कषायके सदभावमें होता है। अतएव उदयका भी अभाव हो जानेसे वहाँ उसके फलका भोग जीवक होता । वहाँ जीवको जो सातावेदनीयकर्म के फलका भोग होता है वह भोग पूर्व में बद्ध वेदनीयकर्मके फलका ही होता है। कर्मबन्धकी प्रक्रिया पहले आगमके अनुसार मोहनीयकर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके आधारपर जीवके गणस्थानोंकी जो व्यवस्था बतलायो जा चुकी है उससे निर्णीत होता है कि मोहनीयकर्मका उदय गुणस्थानोंकी व्यवस्थाका ही आधार है । वह उन गुणस्थानोंमें होनेवाले कर्मबन्धमें कारण नहीं होता। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थोंमें मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ही बन्धके कारण माने गये हैं। इसका आशय यह है कि मोहनीयकर्म के उदयमें कर्मबन्ध तो होता है परन्तु बन्धका कारण मोहनीयकर्मका उदय न होकर उस उदयमें निमित्तोंके सहयोगसे यथायोग्य रूपमें होनेवाले जीवके मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय एवं योग परिणमन ही हैं। बन्धके कारणोंमें निर्दिष्ट मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका उपलक्षण है, क्योंकि जीवमें मिथ्यादर्शनके साथ नियमसे मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र पाये जाते हैं। अतः बन्धके कारणोंमें मिथ्यादर्शन शब्दसे मिथ्यादर्शनके साथ मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका भी समावेश होता है तथा उनमेंसे मिथ्याचारित्र ही बन्धका साक्षात् कारण है। यत: वह मिथ्याचारित्र, मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक होता है अतः परम्परया मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानको भी बन्धके कारण स्वीकार किया गया है। मिथ्यादर्शनका अर्थ है अतत्त्वश्रद्धान । वह दो प्रकारका है-एक तो तत्त्वश्रद्धानका न होना और दूसरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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