SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंजीवर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ : सर्वथा उपशम या क्षय नहीं हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मका बन्ध चतुर्वं गुणस्थानके एक निश्चित भाग तक ही होता है। इन सबके बन्धका कारण जीवको भाववतो शक्तिके हृदय और मस्तिष्क के सहारेपर होने वाले यथायोग्य परिणमनोंसे प्रभावित जीवकी क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक यथायोग्य प्रवृत्तिरूप परिणमन ही है। जीव चतुर्थ गुणस्थानमें जब तक आरम्भी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका यथायोग्य रूपमें एकदेश त्याग नहीं करता, तब तक तो उसके अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मका बन्ध होता ही रहता है। परन्तु वह जीव यदि आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश त्यागकर देता है और उस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मके क्षयोपशमकी क्षमता प्राप्त हो जाती हैं तो इसके पूर्व उस जीवमें उस क्रोधकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है । यह व्यवस्था चतुर्थ गुणस्थानके समान प्रथम और तृतीय गुणस्थान में भी लागू होती है। इसी तरह जीव पंचम गुणस्थानमें जब तक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्याग नहीं करता तब तक तो उसके प्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मका बन्ध होता ही है, परन्तु वह जीव यदि आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्यागकर देता है और इस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस प्रत्याख्यानावरण क्रोधकमंके क्षयोपशमकी क्षमता प्राप्त हो जाती है तो इसके पूर्व उस जीवमें उस क्रोधकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था पंचम गुणस्थानके समान प्रथम, तृतीय और चतुर्थं गुणस्थानोंमें भी लागू होती है। पंचम गुणस्थानके आगे गुणस्थानों में तब तक जीव संज्वलन क्रोधकर्मका बन्ध करता रहता है जब तक वह नयम गुणस्थान में बन्धके अनुकूल अपनी मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति करता रहता है । और जब वह नवम गुणस्थानमें संज्वलन क्रोधकर्मके उपशम या क्षयकी क्षमता प्राप्त कर लेता है तो इसके पूर्व उस जीवमें उस क्रोधकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है । इतना विवेचन करने में मेरा उद्देश्य इस बात को स्पष्ट करनेका है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियोंके रूपमें होनेवाले परिणमन ही क्रोधकर्मके आस्रव और बन्धमें कारण होते हैं और उन प्रवृत्तियोंका निरोध करनेसे ही उन क्रोधकमका संवर और निर्जरण करनेकी क्षमता जीवमें आती है । जीवकी भाववती शक्तिका न तो मोहनीयकर्मके उदयमें होनेवाला विभाव परिणमन आस्रव और बन्धका कारण होता है और न ही मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाला भाववती शक्तिका स्वभावरूप शुद्ध परिणमन संबर और निर्जराका कारण होता है। इतना अवश्य है कि जीवकी भाववती शक्तिके हृदय के सहारेपर होनेवाले तस्वश्रद्धानरूप शुभ और अतस्त्वश्रद्धानरूप अशुभ तथा मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञानरूप शुभ और अतस्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन अपनी शुभरूपता और अशुभरूपताके आधारपर यथायोग्य शुभ और अशुभ कर्मो के आसव और बन्धके परम्परया कारण होते हैं, और तत्त्वश्रद्धान व्यवहारसम्यग्दर्शन के रूपमें तथा तत्त्वज्ञान व्यवहारसम्यग्ज्ञानके रूपमें यथायोग्य कमोंके आसव और बन्धके साथ यथायोग्य कर्मोंके संवर और निर्जराके भी परम्परया कारण होते हैं । इस विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक अदवारूप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियां यथायोग्य अशुभ और शुभ कर्मोके आलव और बन्धका साक्षात् कारण होती हैं तथा अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्ति यथायोग्य कर्मोके आलव और बन्धके साथ यथायोग्य कमोंके संवर और निर्जरणका साक्षात् कारण होती हैं, एवं जीवकी क्रियावती शक्ति के परिणमन स्वरूप तथा दयारूप शुभ और अदयारूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy