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________________ ३ | धर्म और सिद्धान्त : १०९ जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन कर्मोके आस्रव और बन्धके कारण होते हैं और उसी क्रियावतीशक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक उन प्रवृत्तिरूप परिणमनोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमन भव्यजीवमें कर्मोंके संवर और निर्जरणके कारण होते है। जीवको भाववतीशवितके न तो शुभ और अशुभ परिणमन कर्मोके आस्रव और बन्धके कारण होते हैं, और न ही उसके शुद्ध परिणमन कर्मोंके संवर और निर्जरणके कारण होते हैं, इसमें यह हेतू है कि जीवकी क्रियावतीशक्तिका मन, वचन और कायिक सहयोगसे जो क्रियारूप परिणमन होता है, उसे योग कहते है ( 'कायवाङ्मनःकर्म योगः'--त. सू० ६-१)। यह योग यदि जीवकी भाववतीशक्तिके पूर्वोक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे शुभ योग कहते हैं और वह योग यदि जीवकी भाववतीशक्तिके पूर्वोक्त अतत्त्वश्रद्धान, अतत्त्वज्ञान रूप अशुद्ध परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे अशुभ योग कहते है, ( ‘शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः अशुभः'--सर्वार्थसिद्धि ६-३)। यह योग ही कर्मोका आस्रव अर्थात् बन्धका द्वार कहलाता है । ( ‘स आस्रवः' त० सू० ६-२ ) । इस तरह जीवकी क्रियावती शक्तिका शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन ही कर्मोंके आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप बन्धका कारण सिद्ध होता है। यद्यपि योगकी शुभरूपता और अशुभरूपताका कारण होनेसे जोवकी भाववतीशक्तिके तत्त्वश्रद्धान तत्त्वज्ञानरूप शभ परिणमनोंको व अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमनोंको भी कोंके आस्रवपूर्वक बन्धका कारण मानना अयुक्त नहीं है, परन्तु कर्मोके आस्रव और बन्धका साक्षात् कारण तो योग ही निश्चित होता है। जैसे कोई डाक्टर शीशीमें रखी हुई तेजाबको भ्रमवश आँखकी दवाई समझ रहा है तो भी तबतक तेजाब रोगीको आँखको हानि नहीं पहुँचाती है, जबतक वह डाक्टर उस तेजाबको रोगीकी आँखमें नहीं डालता है। जब डाक्टर उस तेजाबको रोगीकी आँखमें डालता है तो तत्काल वह तेजाब रोगीकी आँखको हानि पहुँचा देती है। इसी तरह आँखकी दवाईको आँखकी दवाई समझकर भी जबतक डाक्टर उसे रोगोको आँखमें नहीं डालता है तबतक वह दवाई उस रोगोकी आँखको लाभ नहीं पहुँचाती है। परन्तु, जब डाक्टर उस दवाईको आँखमें डालता है, तो तत्काल वह दवाई रोगीकी आँखको लाभ पहुँचा देती है। इससे निणीत होता है कि जीवकी क्रियावतीशक्तिका शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन ही आस्रव और बन्धका कारण होता है। इतना अवश्य है कि जीवकी भाववतीशक्तिका हृदयके सहारेपर होनेवाला तत्त्वश्रद्धानरूप शुभ परिणमन या अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ परिणमन और जीवकी भाववतीशवितका मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमन या अतत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन भी योगकी शभरूपता और अशुभरूपतामें कारण होनेसे परम्परया आस्रव और बन्धमें कारण माने जा सकते है, परन्तु आस्रव और . बन्धमें साक्षात् कारण तो योग ही होता है। इसी प्रकार जीवकी क्रियावतीशक्तिके योग-रूप परिणमनके निरोधको हो कर्मके संवर और निर्जरणमें कारण मानना युक्त है--('आस्रव निरोधः संवरः'--त० सू० ९-१)। जीवकी भाववतोशक्तिके मोहनीयकर्मके यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोको संवर और निर्जराका कारण मानना युक्त नहीं है, क्योंकि भाववताशक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमन मोहनीयकर्मके यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होनेके कारण संवर ओर निर्जराके कार्य हो जानेसे कर्मोके संबर और निर्जरणमें कारण सिद्ध नहीं होते है। एक बात ओर, जब जीवकी क्रियावतीशक्तिके योगरूप परिणमनोंसे कमांकआस्रव होता है तो कर्मोंके संवर और निर्जरणका कारण योग-निरोधको ही मानना युक्त होगा। यही कारण है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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