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________________ १०२ : सरस्वती-बरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ और अभव्यता यद्यपि क्रमसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप योग्यता और उसके अभावरूप ही हैं तो भी यदि कोई प्रश्न करे कि प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों में परिणमन करता है दूसरे द्रव्यको पर्यायोंमें परिणमन नहीं करता है, इसमें क्या कारण है, तो यही उत्तर दिया जायगा कि प्रत्येक द्रव्यका यही स्वभाव है। इस तरहकी भव्यता और अभव्यता सब जीवोंमें भी पायी जाती है फिर भी यह भव्यता और अभव्यता समस्त जीवोंमें समान होनेके कारण भेद नहीं पैदा कर सकती है। किन्तु मोक्षकी भव्यता और अभव्यता परस्पर विरुद्ध होनेके कारण दोनों एक जगह नहीं रह सकती हैं इसलिये ये जीवोंमें भेद पैदा कर देती है। तथा यह भव्यता और अभव्यता भी क्रमसे मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप योग्यता और इसके अभावरूप ही है, इसलिये इन दोनोंको जीवका स्वभाव कहा जाता है। तीसरी बात यह है कि स्वभाव नाम परिणमनका है और परिणमन पर्यायको कहते हैं । जिस द्रव्यमें जो पर्याय भविष्यतरूप है उसमें वह पर्याय अपने प्रकट होने योग्य क्षेत्र और कालरूप निमित्तको पाकर प्रकट हो जाती है। जब तक वह पर्याय प्रकट होने योग्य रहतो है तब तक उस द्रव्यमें उस पर्यायकी अपेक्षा भव्यता रहती है। जिस द्रव्यमें जो पर्याय भविष्यत् (शक्ति) रूप नहीं है उसमें वह पर्याय कभी भी प्रकट नहीं होगी इसलिये उस द्रव्यमें उस पर्यायकी अपेक्षा अभव्यता रहतो है। इस तरह भव्यता और अभव्यता दोनोंका कारण क्रमसे द्रव्यकी भविष्यत् पर्याय और उसका अभाव ही हुआ। इसलिये भव्यताको पारिणामिक या स्वाभाविक कहना संगत जान पड़ता है। किसी-किसो जीवमें शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय भविष्यतरूप है, इसलिये व जीव भव्य कहे जाते हैं और किसी-किसो जीवमें शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय भविष्यत्रूप नहीं है किन्तु भविष्यत्कालके संपूर्ण समयोंमें वह सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय कर्मोसे आवृत्त रहनेसे अशुद्ध ही रहेगी, इसलिये वे अभव्य कहे जाते है। इस तरहसे जोवोंकी इस भव्यता और अभव्यताको भी पारिणामिक या स्वाभाविक कहते है। शंका-यदि भव्यता और अभव्यताको पारिणामिक माना जाय, तो स्वभावके अविनाशी होनेके कारण मोक्षमें भव्यताका नाश नहीं होना चाहिये ? उत्तर-भव्यताका अर्थ है शुद्ध सम्यग्दर्शनादिके प्रकट (वर्तमान) होने योग्य भविष्यत् (शक्ति) रूपसे शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्यायका सद्भाव । प्रत्येक द्रव्यको भविष्यत् पर्याय वर्तमान और वर्तमानपर्याय भूत होती जा रही है और होती जायगी, तो भव्य जीवमें शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय कभी प्रकट (वर्तमान) होगी ही, और जब वह प्रकट हो जायगी तब उसके प्रकट होनेकी योग्यता भी नष्ट हो जायगी, इस तरहसे सम्यग्दर्शनकी हालतसे चतुर्दश गुणस्थानके अन्त तक जैसे-जैसे आत्माकी शद्ध पर्यायोंका विकास होता जायगा वैसे-वैसे योग्यता भी नष्ट होती जायगी और अन्तमें संपूर्णरूप योग्यताका नाश हो जायगा, कारण कि उस समय आत्माके संपूर्ण स्वभावका विकास हो जायगा। आगे इस जीवका जो भी परिणमन होगा वह शद्ध पर्यायोंमें ही होगा, इसलिये भव्यत्वका निमित्त हट जानेके कारण मोक्षमें भव्यत्व भावका नाश माना जाता है। इस तरहसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि भव्य और अभव्य जीवोंके वास्तविक भेद हैं, कल्पना नहीं की गयी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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