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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ९३ भव्यजीवोंसे शुन्य नहीं होगा, तो इससे यह बात अवश्य निकल आती है कि भविष्यत्कालके समय भी उतने ही माने जायँ, जितने (समयों)में पूर्वोक्त क्रमसे भव्यजीव मोक्ष भी जाते रहें किन्तु कालकी समाप्ति होनेपर भी भव्यजीवोंकी समाप्ति न हो, लेकिन कालको समाप्ति मान लेनेपर भी भव्यजीवोंकी समाप्ति न मानी जाय, तो यह शंका उपस्थित होती है कि वे फिर कालके बिना मोक्ष कैसे जा सकेंगे? इसलिये जितने भव्य जीव इस समय विद्यमान हैं उनसे उतने ही अधिक भविष्यत् कालके समय माने जायँ, जितने में कि समस्त भव्य जीव असंख्यात समयोंमें एक जीवके हिसाबसे मोक्ष जा सके, अर्थात् अन्तिम भव्य जीवके मोक्ष जानेका समय भविष्यत्कालका अन्तिम समय सिद्ध हो सके, इसलिये जिस तरह भूतकालके समय मुक्तजीवराशिसे असंख्यातगुणे सिद्ध होते हैं उसी प्रकार भविष्यकालके समय भी विद्यमान भव्यराशिसे असंख्यातगुणे सिद्ध हुए। यहाँपर गुणकार असंख्यातका प्रमाण वही है, जितना कि औसतसे एक जीवके मोक्ष जानेका समय निश्चित होता है। - इसके बाद यह आपत्ति खड़ी होती है कि भविष्यकालको विद्यमान भव्यराशिसे असंख्यातगुणा माननेसे जब उन दोनोंकी समाप्ति हो जायगी, तब एक तो कालद्रव्यका अभाव मानना पड़ेगा तथा इसके साथ अन्य द्रव्योंका भी अभाव मानना होगा, कारण कि कोई भी द्रव्य बिना परिणमनके अपनी सत्ता नहीं रखता, परिणमन करानेवाला कालद्रव्य ही माना गया है और जब पूर्वोक्त प्रकारसे कालद्रव्यमें परिणमनका अभाव हो जानेसे कालद्रव्यका अभाव सिद्ध होता है तो उसके अभावमें अन्य द्रव्य भी अपनी सत्ता कायम नहीं रख सकते हैं, जो कि प्रमाण-विरुद्ध है, कारण सतका विनाश कभी नहीं होता। इसका समाधान भी इस ढंगसे किया जा सकता है कि भविष्यत्कालके समय और भव्यजीव दोनों ही अक्षयानन्त है, जिससे भविष्यत्कालके समय और भव्यजीवोंमें कमी होनेपर भी दोनोंका अन्त नहीं होगा। अर्थात् कालद्रव्यके समय सदा भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होते ही रहेंगे, जिससे काल द्रव्यकी सत्ता कायम रहेगी और उसके सद्भावमें अन्य द्रव्य भी परिणमन करते हुए अपनी सत्ता कायम रख सकेंगे। शंका-भविष्यत्कालके समयों और भव्यजीवोंमें बराबर कमी होती जा रही है तो उनका अन्त अवश्य होगा, यह मानना कि कमो तो होती जावे ओर अन्त कभी भी न हो, बिल्कुल असंगत है ? उत्तर-जब हम अतीतकी ओर दृष्टि डालते हैं तो यही कहना पड़ ता है कि जो कुछ हम देख रहे है वह अनादिकालसे परिवर्तित होता हुआ अवश्य चला आ रहा है। इस अनादिकालकी सीमा निश्चित करना चाहें तो नहीं हो सकती, तब यही निश्चित होता है कि आजतक इतना काल बीत चुका, जिसका कि अन्त नहीं, अर्थात् वर्तमान समयसे बोते हुए समयोंकी गणना की जाय तो उनका कहींपर अन्त नहीं, कारण अन्त आ जानेसे उसमें अनादिपनेका अभाव हो जायगा । इसी तरह जब अनादिकालसे भव्यजीव मोक्ष जा रहे हैं तो इस समयसे मुक्त जीवोंको गणना करनेपर उनका कहीं अन्त नहीं होगा। इसमें विचार पैदा होता है कि भविष्यत्कालके समयों और भव्यजीवोंमें जब इतनी अधिक संख्याकी कमी हो गयी, जिसका अन्त नहीं, तो अबतक समाप्त क्यों नहीं हुई ? यदि कहा जाय कि भविष्यत्कालके समयों और भव्यजीवोंकी संख्या इतनी अधिक है कि अनादिकालसे कम होते हुए भी वह अभीतक तो समाप्त नहीं हुई, लेकिन असंख्यात या अनन्त समयोंमें वह अवश्य समाप्त हो जायगी, तो इसका तात्पर्य यही होगा कि कालका और जीवोंके मोक्ष जानेका प्रारम्भ किसी निश्चित समयसे हुआ है और इस प्रकार हमारी अनादिकल्पना केवल कल्पनामात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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