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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ८१ है वह नयरूप होता है।' इस तरह पद, यदि वाक्यसे सम्बद्ध हो तो वह नयरूप होगा और पद तभी नयरूप होगा, जबकि वह वाक्यसे सम्बद्ध होगा। स्वतन्त्र पद प्रमाणरूप तो होगा ही नहीं, लेकिन अर्थाशके भी प्रतिपादनमें असमर्थ रहनेके कारण वह नयरूप भी नहीं होगा। वाक्य यदि अपनी स्वतन्त्र हालतमें वक्ता या लेखकके पूर्ण अभिप्रायका प्रतिपादन करता है तो वह प्रमाणरूप होगा और यदि किसी महावाक्यका अवयव होकर वक्ता या लेखकके अभिप्रायके एकदेशका प्रतिपादन करता है तो वह नयरूप होगा। यही व्यवस्था वाक्योंके समहरूप महावाक्योंके और महावाक्योंके समूहरूप महावाक्योंमें भी जानना चाहिये । लेखविस्तारके भयसे यहाँपर इन सब बातोंपर विशेष प्रकाश नहीं डाला जा रहा है। जैनागममें नयोंकी व्यवस्था विविध प्रकारसे की गयी है। उनमें एक प्रकार तो नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नाम के सात नयोंका है। दूसरा प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नामके दो नयोंका है और तीसरा प्रकार निश्चय तथा व्यवहार नामके दो नयोंका है।४ नयोंका इन प्रकारोंके अलावा एक प्रकार वह भी है, जिसमें वचनके सभी प्रकारोंका समावेश हो जाता है । इसे हम लोकसंग्राहक नयोंका प्रकार कहना उचित पमझते हैं । इस सम्बन्धमें गोम्मटसार कर्मकाण्डकी निम्नलिखित गाथा ध्यान देने योग्य है-- जावदिया वयणपहा तावदिया चेव होंति णयवादा । जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ।।८९४।। अर्थात् जितने वचन बोलनेके मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं। नयोंके इन सब प्रकारोंका विवेचन यहाँ हमें नहीं करना है। प्रकृत प्रसंग तो निश्चयनय और व्यवहारनयका है । अत. इन्हीं दो नयोंपर ही हम यहाँ प्रकाश डाल रहे हैं। . सर्वप्रथम यहाँपर इस बातको समझना है कि उपयुक्त पदादि महावाक्य पर्यन्त वचन दो प्रकारका होता है-एक तो वस्तूतत्त्वको सत्य (यथावस्थित रूपमें प्रतिपादित करनेवाला वचन और दूसरा वस्तुतत्त्वको असत्य (जैसा नहीं है वैसा) रूपमें प्रतिपादित करनेवाला वचन । इनमेंसे वस्तुतत्त्वको सत्यरूपमें प्रतिपादित करनेवाला वचन सकलादेशी प्रमाणरूप होता है और वस्तुतत्त्वके एकदेशको सत्यरूपमें प्रतिपादित करनेवाला वचन विकलादेशो नयरूप होता है। इसी प्रकार वस्ततत्त्वको असत्यरूपमें प्रतिपादित करनेवाला वचन प्रमाणाभास और नयाभासके भेदसे दो प्रकारका होता है। जो वचन अवस्तुको वस्तुरूप में प्रतिपादित करता हो वह भी प्रमाणाभासरूप होता है तथा जो वचन वस्तूके एक अंशको संपूर्ण वस्तुरूपमें प्रतिपादित करता हो, वह वचन भी प्रमाणाभासरूप होता है। इसी प्रकार जो बचन वस्तूके अंशको दूसरे अंशरूपमें प्रतिपादित करता हो वह वचन नयाभासरूप होता है । १. सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति ।-सर्वार्थसिद्धि १-६ । २. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढवम्भूता नयाः । -तत्त्वार्थसूत्र १-३३ । ३. नयो द्विविधः । द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्च ।--सर्वार्थसिद्धि १-६।। (नयः) द्वधा द्रव्याथिकः पर्यायार्थिकश्चेति । द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः अनुवृत्तिरित्यर्थः, तद्विषयो द्रव्यार्थिकः । पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः, तद्विषयः पर्यायाथिकः । -सर्वार्थसिद्धि १-३३ । ४. पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयौ द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयोऽभेदविषयो व्यवहारो भेदविषयः । आलापपद्धति । ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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