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________________ ७२ : सरस्वती वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ हैं । इस प्रकार सामान्यरूपसे यह बात निश्चित हो जाती है कि परिणमन दो प्रकारसे होते हैं । उनमें से एक प्रकार तो स्वप्रत्ययका है और दूसरा प्रकार स्वपरप्रत्ययका है ।" यह बात निश्चित ही समझना चाहिये कि वस्तुका कोई भी द्रव्यपरिणमन अथवा गुणपरिणमन परप्रत्यय नहीं होता है ।२ प्रत्येक वस्तुमें जो गुणका परिणमन उस वस्तुकी अपनी परिणमनशक्तिके आधारपर परकी अपेक्षाके बिना ही केवल स्वतः होता है वह स्वप्रत्यय परिणमन कहलाता है और प्रत्येक वस्तुमें जो द्रव्य या गुणका परिणमन उस वस्तुकी अपनी परिणमन शक्तिके आधारपर परवस्तुका सहयोग मिलनेपर होता है वह स्वपरप्रत्यय परिणमन कहलाता है । प्रत्येक वस्तुके अगुरुलघुगुणके शक्त्यंशोंमें अनन्तभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानिके रूपमें तथा इसके अनन्तर अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि इस प्रकार षट्स्थानपतित हानि और वृद्धिरूपमें जो परिणमन समय-समय के विभागपूर्वक सतत हुआ करता है उसे तो स्वप्रत्यय परिणमन जानना चाहिये । इसके अलावा प्रत्येक वस्तुमें होनेवाले शेष सभी गुणपरिणमन और सभी द्रव्यपरिणमन स्वपरप्रत्यय ही हुआ करते हैं । ये सभी परिणमन यथायोग्य व्यवहारकालके समय, आवली, घड़ी, मुहूर्त, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास और वर्ष आदि विभागों में विभक्त किये जा सकते हैं । यद्यपि वेदान्त और चार्वाक जैसे दर्शनों में परप्रत्यय परिणमनोंको भी स्वीकार किया गया है । जैसा पूर्व में हम बतला आये हैं कि वेदान्तदर्शनमें चित्को अचित्का उपादान मान लिया गया है और चार्वाक दर्शनमें अचित्को चित्का उपादान मान लिया गया है । परन्तु जैनदर्शन में चूँकि पर-प्रत्यय परिणमनका सर्वथा निषेध कर दिया गया है और जो अनुभव सिद्ध भी है इसलिये वस्तुमें परप्रत्ययपरिणमन मानने वाले वेदान्त आदि दर्शनोंकी इन मान्यताओंका वहाँ पर ( जैनदर्शन में ) खण्डन किया गया है । और यही कारण है कि जैन मान्यता के अनुसार जीव, पुद्गल, धर्मं, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योंकी जितनी संख्या विश्व में निर्धारित की गयी है वह नियत है, उसमें कभी घटा-बढ़ी नहीं हो सकती है । प्रत्येक वस्तुके अगुरुलघुगुणके शक्त्यंशोंके आधारपर होनेवाले षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप स्वप्रत्यय गुणपरिणमनोंका संकेत ऊपर हम कर चुके हैं । वस्तुके स्वपरप्रत्यय द्रव्यपरिणमनों और गुणपरिणमनोंका विवरण निम्न प्रकार जानना चाहिये । १. द्विविधः उत्पाद: स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च । - सर्वार्थसिद्धि टीका, ५-२ । नोट - - यहाँ पर पर प्रत्ययसे तात्पर्यं स्वपरप्रत्ययका आगमानुसार ग्रहण किया गया है । २. समयसार, गाथा ११६ से १२० व १२१ से १२५ तक । ३. स्वनिमित्तस्तावदतन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्धा हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । -- सर्वार्थसिद्धि, ५-७ । ४. स्वश्च परश्च, स्वपरी, स्वपरौ प्रत्ययौ ययोस्तौ स्वपरप्रत्ययौ । उत्पादश्च विगमश्च उत्पादविगमौ, स्वपरप्रत्ययौ उत्पादविगमौ येषां ते स्वपरप्रत्ययोत्पादविगमाः । के पुनस्ते ? पर्यायाः । द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणी बाह्यः प्रत्ययः तस्मिन् सत्यपि स्वयमतत्परिणामोऽर्थो न पर्यायान्तरमास्कन्दति । तत्समर्थश्च स्वः प्रत्ययः । तावुभौ संभूय भावानामुत्पादविगमयोर्हेतु भवतः, नान्यतरापाये कुशूलस्थमाषपच्यमानोदकस्थघोटक माषवत् । -- तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ५ - २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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