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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ६३ भारी भूल करते हैं । कारण कि संसारके मुख्य कारण तो मोहनीय कर्मके उदयसे होने वाले मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ही हैं तथा व्यवहार अर्थात् क्षायोपशमिक मोक्षमार्ग में देशघाती प्रकृतियोंका उदय विद्यमान रहता है वह यद्यपि संसारका कारण होता है लेकिन उसमें ( क्षायोपशमिक मोक्षमार्गमें) जितना अंश यथाविधि उपशम या क्षयके रूपमें सर्वघाती कर्मके उदयाभावरूप रहा करता है वह कभी संसारका कारण नहीं होता हैं ।" यही कारण है कि देशघाती प्रकृतिके प्रभाव से ऐसा जीव मर कर उत्तम गतिमें ही जन्म लिया करता है और परंपरया उस देशघाती प्रकृतिके प्रभावको समाप्त करके मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है । 3 निश्चयमोक्षमार्गकी सर्वथा भूतार्थता और व्यवहार मोक्षमार्गकी कथंचित् भूतार्थता और कथंचित् अभूतार्थताको सिद्धिमें एक तर्क यह भी है कि निश्चयमोक्षमार्ग सर्वथा बन्धका अकारण है जबकि व्यवहारमोक्षमार्गं पूर्वोक्त प्रकारसे कथंचित् बन्धका अकारण है और कथंचित् बन्धका कारण भी है । अतः मुक्तिका सर्वथा कारण होनेसे निश्चयमोक्षमार्ग को सर्वथा भूतार्थं आदि कहना उचित है और कथंचित् बन्धका कारण तथा कथंचित् बन्धका अकारण होनेसे जब व्यवहारमोक्षमार्ग में कथंचित् संसारकी कारणता और कथंचित् मुक्तिकी कारणता सिद्ध हो जाती है तो एक प्रकारसे उसे मुक्तिकी कथंचित् अकारणता के आधारपर कथंचित् वास्तविक या अभूतार्थं आदि मानना तथा मुक्तिको कथंचित् कारणता के आधार पर कथंचित् वास्तविक या भूतार्थं आदि मानना ही उचित है । उसे सर्वथा अभूतार्थं मानना तो बिलकुल अनुचित है, क्योंकि सर्वथा अभूतार्थता तो संसारके सर्वथा कारणभूत या मोक्षके सर्वथा अकारणभूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रमें सिद्ध होती है । यदि व्यवहार अर्थात् क्षायोपशमिक मोक्षमार्ग में सर्वथा अभूतार्थता स्वीकार की जायगी तो फिर उसका मिथ्यादर्शनादिकी अपेक्षा भेद ही क्या रह जायेगा ? अर्थात् कुछ भेद नहीं रह जायगा । करणानुयोग में निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थ इस लेखके आरम्भमें हम कह आये हैं कि करणानुयोग वह है जिसमें जीवोंकी पाप, पुण्य और धर्ममय परिणतियों तथा उनके कारणोंका विश्लेषण किया गया है और आगे चल कर एक स्थान पर हम यह भी कह आये हैं कि आत्माका स्वभाव ज्ञायकपना अर्थात् विश्वके समस्त पदार्थो को देखने-जानने की शक्ति रूप है । प्रकृतमें जो कुछ विवेचन किया गया है वह सब इसके आधार पर ही किया गया है । उपर्युक्त प्रकार ज्ञायकपना आत्माका स्वतः सिद्ध स्वभाव है । इसलिये इस आधार पर एक तो आत्माका स्वतंत्र और अनादि-निधन अस्तित्व सिद्ध होता है, दूसरे, जिस प्रकार आकाश अपने स्वतः सिद्ध अवगाहक स्वभावके आधार पर विश्वकी सम्पूर्ण वस्तुओंको अपने उदरमें एक साथ हमेशा समाये हुए रह रहा है उसी प्रकार आत्माको भी अपने स्वतः सिद्ध ज्ञायक स्वभावके आधार पर विश्वकी संपूर्ण वस्तुओंको एक साथ हमेशा देखते-जानते रहना चाहिये, परन्तु जो जीव अनादिकालसे संसार - परिभ्रमण करते हुए अभी भी इसी चक्रमें फँसे हुए हैं उन्होंने अनादिकालसे अभी तक न तो कभी विश्वकी संपूर्ण वस्तुओंको एक साथ देखा जाना है और न वे अभी भी उन्हें एक साथ देख जान पा रहे हैं । इतना ही नहीं, इन संसारी जीवोंमें एक तो तरतमभावसे ज्ञानकी मात्रा अल्प ही पायी जाती है। दूसरे, जितनी मात्रामें इनमें ज्ञान पाया जाता है वह भी इन्द्रियादिक अन्य साधनोंकी अधीनतामें ही हुआ करता है । एक बात और है कि ये संसारी जीव पदार्थोंको देखने-जानने के १. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लोक २१२, २१३, २१४ । २. प्रवचनसार, गाथा, ११-१२ । ३. पुरुषार्थं सिद्धघुपाय, श्लोक २९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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