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________________ ३ /धर्म और सिद्धान्त : ६१ व्यवहारके भेदसे दो प्रकारके मोक्षमार्गका कथन मिलता है उसका आशय निश्चयमोक्षमार्गको तो मोक्षका साक्षात् कारण बतलाना है तथा व्यवहारमोक्षमार्गको मोक्षका परंपरया अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गका कारण होकर मोक्षका कारण बतलाना है। विचार कर देखा जाय तो यह आशय 'मोक्षमार्ग' शब्दके साथ लगे हुए निश्चय और व्यवहार शब्दोंसे ही ध्वनित होता है। इसी प्रकार निश्चयमोक्षमार्गस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यकचारित्रको तो कार्यरूप तथा व्यवहारमोक्षमार्गस्वरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्रको उस निश्चयमोक्षमार्गस्वरूप सम्यग्दर्शनादिका कारणरूप बतलाना भी उसीका आशय है। यहाँपर भी यदि विचार करके देखा जाय तो यह आशय भी सम्यग्दर्शन आदि शब्दोंके साथ लगे हुए निश्चय और व्यवहार शब्दोंसे ही ध्वनित होता है। इस तरह ज्ञात होता है कि चरणानुयोगके प्रकृत प्रकरणमें मोक्षमार्ग शब्दके साथ लगे हुए निश्चय और व्यवहार शब्दोंका क्रमसे कारण की साक्षाद्रूपता और परंपरारूपता ही अर्थ होता है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शब्दोंके साथ लगे हुए निश्चय और व्यवहार शब्दोंका क्रमसे निश्चयरूप और व्यवहाररूप सम्यग्दर्शनादिकको कार्यरूपता और कारणरूपता ही अर्थ होता है। इस तरह यह विवेचन हमें इस निष्कर्षपर पहुँचा देता है कि मोक्षप्राप्तिके लिये जीवको मोक्षके साक्षात कारणभूत निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्चारित्रकी तथा परंपरया कारणभूत व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्चारित्रकी अनिवार्य आवश्यकता है। ऐसी स्थितिमें जो व्यक्ति निश्चयमोक्षमार्गरूप निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी प्राप्तिके बिना केवल व्यवहारमोक्षमार्गरूप व्यवहार सम्यग्दर्शनादिकसे ही मोक्षप्राप्ति कर लेना चाहते हैं, वे गलती पर हैं । कारण कि उपर्युक्त विवेचनके अनुसार उन्हें अपने मोक्षप्राप्ति रूप उद्देश्यमें सफलता मिलना असंभव है। इसी तरह जो व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि “जब निश्चयमोक्षमार्ग के बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं ह सकती है तो निश्चयमोक्षमार्गकी प्राप्तिका ही जीवको प्रयत्न करना चाहिये, व्यवहार मोक्षमार्गके ऊपर ध्यान देनेको कुछ भी आवश्यकता नहीं है", तो ये व्यक्ति भी गलतीपर है, क्योंकि ऊपरके विवेचनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जीवको व्यवहारमोक्षमार्गपर आरूढ़ हुए बिना निश्चयमोक्षमार्गको प्राप्ति होना असंभव है। यह बात पूर्वमें ही स्पष्ट की जा चुकी है कि मोक्षमार्ग के अंगभूत निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्ति जीवकी औपशमिकरूपमें तो उपशमश्रेणी माड़ कर ११वें गुणस्थानमें पहँचनेपर ही होती है और क्षायिकरूपमें क्षपकश्रेणी माड़ कर १२वें गुणस्थानमें पहुँचनेपर ही होती है। इस प्रकार कहना चाहिये कि जब तक जीव उपशम या क्षपक श्रेणी माड़कर ११वें अथवा १२वें गुणस्थानमें नहीं पहुँच जाता है तब तक अर्थात् १०३ गुणस्थान तक उसके व्यवहारसम्यक्चारित्र, जिसे सरागचारित्र या करणानुयोगकी दृष्टिसे क्षायोपशमिकचारित्र कहा जाता है, ही रहा करता है। इससे यह मान्यता खण्डित हो जाती है कि "व्यवहारसम्यक्चारित्रको धारण किये बिना ही निश्चयसम्यक्चारित्र की उपलब्धि जीवको संभव है", कारण कि अविरतसम्यग्दृष्टि जीव ययायोग्य गुणस्थानक्रमसे बढ़ता हुआ ही ११वें या १२वें गुणस्थानमें पहुंच कर निश्चयसम्यक्चारित्र को उपलब्ध कर सकता है और यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि १०वें गुणस्थान तक व्यवहारसम्यकचारित्र ही सरागचारित्र या यों कहिये कि क्षायोपशमिकचारित्र के रूप में रहा करता है। उपर्यक्त कथनसे एक यह मान्यता भी खण्डित हो जाती है कि "जिस जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्ति हो जाती है उसके व्यवहारचारित्र हो ही जाता है।" कारण कि पूर्वोक्त प्रकारसे व्यवहारसम्यक्चारित्रका अभाव हो जाने पर ही निश्चयसम्यफ्चारित्रकी प्राप्ति जीवको होती है। क्या कोई व्यक्ति इस बातको स्वीकार करेगा कि क्षायोपशमिकचारित्ररूप सरागचारित्र या व्यवहारचारित्रका सद्भाव रहते हुए भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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