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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ५९ द्वितीय पद्य के अन्तिम चरणमें श्रद्धेय पण्डितजोने कहा है कि आगे छहढालामें निश्चय-सम्यग्दर्शनादि रूप उक्त निश्चयमोक्षमार्गके कारणभूत व्यवहारसम्यग्दर्शनादिरूप व्यवहार मोक्षमार्गका विवेचन किया जायगा। इस तरह छहढालामें किये गये विवेचनके अनुसार व्यवहारमोक्षमार्गरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका पृथक-पृथक जो स्वरूप निर्धारित होता है उसका कथन यहाँपर किया जाता है। व्यवहारसम्यग्दर्शनका स्वरूप छहढालामें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व कहे गये हैं और कहा गया है कि इनके प्रति जीवोंके अन्तःकरणमें श्रद्धा अर्थात् इनके स्वरूपादिको वास्तविकताके सम्बन्धमें ज्ञानकी दृढ़ता यानी आस्तिक्यभाव जागत हो जानेका नाम व्यवहारसम्यग्दर्शन है। इसके आधारपर ही जीवोंको निश्चय-सम्यग्दर्शनकी उपलब्धि होती है। __ आचार्य उमास्वामीने तत्त्वार्थसूत्रमें और स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें सम्यग्दर्शनका जो स्वरूप बतलाया है उसे व्यवहारसम्यग्दर्शनका ही स्वरूप समझना चाहिये। आचार्य उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार उपर्युक्त सात तत्वोंके श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है।' और स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डकश्रावकाचारके अनुसार परमार्थ अर्थात् वीतरागताके आदर्श देवों, परमार्थ अर्थात् वीतरागताके पोषक शास्त्रों और परमार्थ अर्थात् वीतरागताके मार्ग में प्रवृत्त गुरुओंके प्रति जीवोंके अन्तःकरणमें श्रद्धान (भक्ति या आस्था) का जागरण हो जाना सम्यग्दर्शन है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र और रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें निबद्ध सम्यग्दर्शनके उक्त लक्षणोंमें परस्पर भेद दिखाई देता है। परन्तु तत्त्वतः उनमें भेद नहीं है, क्योंकि स्वामी समन्तभद्र द्वारा रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें प्रतिपादित लक्षणसे भी निष्कर्षके रूपमें जीवोंके अन्तःकरणमें उक्त सात तत्त्वोंके प्रति आस्तिक्य भावकी जागति हो जाना ही सम्यग्दर्शनका स्वरूप निश्चित होता है । व्यवहारसम्यग्ज्ञानका स्वरूप वीतरागताके पोषक अथवा सात तत्त्वोंके यथावस्थित स्वरूपके प्रतिपादक आगमका श्रवण, पठन, पाठन, अभ्यास, चिन्तन, मनन और उपदेश यह सब व्यवहारसम्यग्ज्ञान है। इस प्रकारके सम्यग्ज्ञानसे जीवोंको समस्त वस्तुओंके और विशेषकर आत्माके स्वतःसिद्ध स्वरूपका बोध होता है। जैसे आत्माका स्वतःसिद्ध स्वरूप ज्ञायकपना अर्थात् समस्त पदार्थोंको देखने-जाननेकी शक्ति रूप है। इसके आधारपर ही आत्माका अनादि, अनिधन, स्वाश्रित और अखण्ड (स्वरूपके साथ तादात्म्यको लिए हए) स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध होता. है । आत्माके इस स्वरूपको समझनेके लिये उपर्यक्त प्रकारके आगमका श्रवण, पठन, पाठन, अभ्यास, चिन्तन, मनन और उपदेश सहायक होता है। विचार कर देखा जाय तो सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेसे पूर्व ही जीवोंको इस प्रकारके सम्यक् (वीतरागताके पोषक) आगमज्ञानकी संप्राप्ति आवश्यक है। इसलिये यद्यपि मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शनके पूर्व ही सम्यग्ज्ञानको स्थान मिलना चाहिये, परन्तु वहाँ इसको जो सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रके मध्य स्थान दिया गया है इसका एक कारण तो यह है कि जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जानेपर ही उक्त प्रकारके ज्ञानका सम्यक्पना १. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । -तत्त्वार्थसूत्र १-२, १-४ । २. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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