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________________ निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थाख्यान सम्पूर्ण जैनागमको चार भागोंमें विभक्त किया गया है-१. प्रथमानुयोग (धर्मकथानुयोग), २. चरणानुयोग, ३. करणानुयोग ४. और द्रव्यानुयोग। प्रथमानुयोग वह है जिसमें अध्यात्मको लक्ष्यमें रखकर महापुरुषोंके जीवनचरित्रके आधारपर पाप, पुण्य और धर्मका दिग्दर्शन कराया गया है। चरणानुयोग वह है जिसमें अध्यात्मको लक्ष्यमें रखकर पाप, पुण्य और धर्मकी व्यवस्थाओंका निर्देश किया गया है। करणानुयोग वह है जिसमें जीवोंकी पाप, पुण्य और धर्ममय परिणतियों तथा उनके कारणोंका विश्लेषण किया गया है और द्रव्यानुयोग वह है जिसमें विश्व की सम्पूर्ण वस्तुओंके पृथक-पृथक् अस्तित्वको बतलाने वाले स्वतःसिद्ध स्वरूप एवं उनके परिणमनोंका निर्धारण किया गया है। इनमेंसे चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोगमें आवश्यकतानसार विविध अर्थों में निश्चय और व्यवहार शब्दोंका बहुलताके साथ प्रयोग हुआ है, इसलिये इन दोनों शब्दोंका कहाँ क्या अर्थ ग्राह्य है, इस विषयपर यहाँ विचार किया जा रहा है । निश्चय और व्यवहार शब्दोंका व्युत्पत्यर्थ निश्चय और व्यवहार दोनों शब्दोंमेंसे निश्चय शब्द तो 'निस्' उपसर्गपूर्वक चयनार्थक 'चिञ्' धातुसे 'अप्' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है और व्यवहार शब्द 'वि' तथा 'अव' उपसर्गपूर्वक 'हन्' धातुसे 'ण' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है । इस प्रकार इन व्युत्पत्तियोंके अनुसार वस्तुमें संभवनीय अभेदाश्रित व भेदाश्रित तथा स्वाश्रित व पराश्रित परस्परविरुद्ध धर्मयुगलोंमें एक-एक धर्म तो निश्चय शब्दका तथा एक-एक व्यवहार शब्दका अर्थ समझना चाहिये । उक्त व्युत्पत्तियोंके अनुसार वस्तुमें संभवनीय अभेदाश्रित व भेदाश्रित तथा स्वाश्रित और पराश्रित परस्परविरुद्ध धर्मोके वे युगल निम्न प्रकार संग्रहीत किये जा सकते हैं अखण्डरूपता-खण्डरूपता, एकरूपता-नानारूपता, तद्रूपता-अतद्रूपता, भावरूपता-अभावरूपता, नित्यरूपता-अनित्यरूपता, स्वाश्रयरूपता-पराश्रयरूपता, संग्रहरूपता-विस्ताररूपता, सामान्यरूपता-विशेषरूपता, अन्वयरूपता-व्यतिरेकरूपता द्रव्यरूपता-पर्यायरूपता, गुणरूपता-पर्यायरूपता, स्वभावरूपता-विभावरूपता, उद्देश्यरूपताविधेयरूपता, साध्यरूपता-साधनरूपता, कार्यरूपता-कारणरूपता, उपादानरूपता-निमित्तरूपता, साक्षाद्रूपतापरम्परारूपता आदि । इसमें पूर्व-पूर्व धर्म तो अभेदाश्रित या स्वाश्रित होनेके कारण वस्तुका निश्चयधर्म और उत्तर-उत्तर धर्म भेदाश्रित या पराश्रित होने के कारण वस्तुका व्यवहारधर्म समझना चाहिये। यहाँपर सर्वप्रथम हम यह विवेचन करने जा रहे हैं कि चरणानुयोगमें प्रयुक्त निश्चय और व्यवहार शब्दोंका क्या-क्या अर्थ आगममें ग्रहण किया गया है ? चरणानुयोगमें निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थ जैन संस्कृतिके अध्यात्मका प्रधान और अन्तिम उद्देश्य जीवों द्वारा सांसारिक बन्धनोंसे छुटकारा पाकर आत्मस्वातंत्र्य प्राप्त कर लेना ही बतलाया गया है। जीवों द्वारा सांसारिक बन्धनोंसे छुटकारा पा लेनेका नाम मोक्ष है और इस मोक्षको प्राप्त करनेका जो उपाय है वह मोक्षमार्ग है। जैनागममें मोक्षमार्गको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके रूपमें प्रतिपादित किया गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान १. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । तत्त्वार्थसूत्र १०८२ । २. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थसूत्र १।१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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