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________________ ५० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सर्वत्र हमें व्यवहार और निश्चयकी प्रक्रियाको सुसंगत कर लेना चाहिये। श्रद्धय पंडितप्रवर आशाधरजीने सागारधर्मामत (अध्याय २ श्लोक ५४) में नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके रूपमें विभक्त सभी जैनोंकी जो तरतमभावसे महत्ता बतलायी है उससे व्यवहारकी महत्ता प्रस्फटित होती है। मैं समझता हूँ कि अब तकके विवेचनसे आगम द्वारा स्वीकृत निश्चय और व्यवहार दोनों मोक्ष-मार्गोंकी निर्विवाद स्थिति एवं सार्थकता अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है। सम्यग्दृष्टिका स्वभाव __'दिव्य ध्वनि' वर्ष २, अंक १२ में 'सम्यग्दृष्टिका स्वभाव' शीर्षकसे आगमप्रमाणके आधार किसी व्यक्तिके विचार मुद्रित हैं। व्यक्तिज्ञानकी कमीके कारण आगमका कैसा अनर्थ करता है, उसका परिचय इससे प्राप्त हो जाता है । मैं यहाँ उसीका उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ ___कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् । ___अज्ञानादेव कायं तदभावादकारकः ।।-समयसार कलश १९४ । इसका अर्थ वहाँ पर यह मुद्रित है "जैसे इस चैतन्यमूर्ति आत्माका स्वभाव परद्रव्यके भोगनेका नहीं है, उसी प्रकार इसका स्वभव परके कर्तापनेका भी नहीं है। अज्ञानके कारण यह जीव अपने आपको परका कर्ता भोक्ता मानता है। जब यह अज्ञान दूर हो जाता है तब यह अपनेको परका कर्ता-भोक्ता नहीं मानता है ।" इसका यथावत् अभिप्राय तो एक विस्तृत लेख द्वारा हो प्रकट किया जा सकेगा। पर मैं इतना ही यहाँ संकेत कर देना चाहता हूँ कि उक्त मुद्रित अर्थ भ्रमपूर्ण है। यथावत् अर्थ निम्नलिखित होना चाहिए “कर्तृत्व अर्थात् राग-द्वेष और मोहरूप परिणमन होना तथा पुद्गलकर्मोंसे बद्ध होना जीवका स्वभाव नहीं है। जिस प्रकार कर्मोंके फलकों भोगना अर्थात् कर्मोदयनिमित्तक राग-द्वेष-मोहादिरूप अपनी परिणतियोंका अनुभवन करना यानी सुखी-दुखी होना जीवका स्वभाव नहीं है, क्योंकि जब तक जीवमें अज्ञान अर्थात् कर्मोदयनिमित्तक राग-द्वेष और मोहरूप परिणमन हो रहा है, तब तक वह कर्ता अर्थात् उपादानरूपसे राग-द्वेष और मोह आदि अपनी परिणतियोंका व निमित्तरूपसे पौद्गलिक कर्मोके बन्धका कर्ता हो रहा है। इस तरह यदि जीवमें होनेवाली राग-द्वेष और मोहरूप अज्ञानपरिणतिका अभाव हो, जावे तो फिर न तो उसके भविष्यमें राग-द्वेष तथा मोहरूप भावोंका कर्तृत्व रहेगा और जब यह कर्तृत्व नहीं रहेगा तो वह पौद्गलिक कर्मोका बन्ध भी नहीं करेगा।" मद्रित अर्थ में जो 'मानता है' ऐसा अर्थ निक्षिप्त किया गया है, इससे यह प्रकट होता है कि अज्ञानसे जीव अपनेको कर्ता केवल मान रहा है, है नहीं। जबकि यथावत् अर्थ यह है कि अज्ञानसे कर्ता है, केवल कर्तापन अपनेमें मान नहीं रहा है। यदि मानने रूप अर्थको सही माना जायगा, तो फिर यह भी मानना होगा कि जीव स्वभावसे संसारी नहीं है, केवल अज्ञानसे वह अपनेको संसारी मान रहा है। जबकि जीव ऐसा ही है, वह अपनेको केवल संसारी मान नहीं रहा है। उक्त पद्य में अज्ञान का अर्थ भी ज्ञानका राग-द्वेष-मोह रूप परिणमन अर्थात विकृत परिणमन ही विवक्षित है, असत्य जानने रूप स्थिति अथवा ज्ञानका अभाव विवश्चित नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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