SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ श्रेणीपर आरूढ़ न होकर उपशमश्रेणीपर आरूढ़ हआ अथवा शुद्धोपयोगकी भूमिकाको प्राप्त न होकर शुभोपयोगकी भमिकामें ही प्रवर्तमान रहा और ऐसी हालतमें उसका यदि मरण हो गया तो वह जीव स्वर्गसुखको प्राप्त करता हुआ परंपरया मोक्षसुखको प्राप्त करता है। इसके साथ ही आगममें यह बात भी स्पष्ट कर दी गयी है कि यदि कोई जीव अपनेको भूलकर स्वर्गसुखमें रम जाय तो फिर इसमें भी संदेह नहीं कि वह मारोचकी तरह यथायोग्य अनेक भवों तक सांसारिक विभिन्न प्रकारको कुयोनियोंमें भी भ्रमण करता है। इस कथनसे इतनी बात स्थिर हो जाती है कि अशुभोपयोग और अशुभ प्रवृत्तिरूप मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या-चारित्र संसारके कारण हैं, शुभोपयोग और शुभ प्रवृत्तिरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वर्गादिसुखपूर्वक परंपरया मोक्षके कारण हैं। तथा शुद्धोपयोग व शुद्ध प्रवृत्तिरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र साक्षात् मोक्षके कारण हैं। ___ इस प्रकार करणानुयोगके आधारपर किए गए उपर्युक्त विवेचन और इसके पूर्व चरणानयोगके आधारपर किए गए विवेचनसे हमारा प्रयोजन यह है कि चरणानुयोगकी दृष्टिसे जो निश्चय और व्यवहाररूप मोक्षमार्गद्वयका अथवा निश्चयसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यग्ज्ञान तथा निश्चयसम्यक्चारित्र और व्यवहारसम्यक्चारित्रका विवेचन किया गया है एवं करणानुयोगकी दृष्टिसे जो औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञान तथा औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यक्चारित्रका विवेचन किया गया है। इन दोनों प्रकारके विवेचनोंका यदि समन्वय किया जाय तो यह निर्णीत हो जाता है कि जिसे चरणानुयोगकी दृष्टिसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहा गया है उसे करणानयोगकी दष्टिसे औपशमिक व क्षायिक सम्यग्दर्शन समझना चाहिये तथा जिसे चरणानुयोगकी दृष्टिसे व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा गया है उसे करणानुयोगकी दृष्टिसे क्षायोपशामिक सम्यग्दर्शन समझना चाहिये। इसी प्रकार जिसे चरणानयोगकी दृष्टिसे निश्चयसम्यग्ज्ञान कहा गया है उसे करणानयोगकी दृष्टिसे क्षायिक-सम्यग्ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान समझना चाहिये और जिसे चरणानुयोगकी दृष्टिसे व्यवहारसम्यग्ज्ञान कहा गया है उसे करणानुयोगको दृष्टिसे क्षायोपशमिक सम्यक्ज्ञान समझना चाहिये और इसी प्रकार जिसे चरणानुयोगकी दृष्टिसे निश्चयसम्यक्चारित्र यथाख्यातचारित्र या वीतरागचारित्र कहा गया है उसे करणानुयोगकी दृष्टिसे औपशमिक व क्षायिक सम्यक्चारित्र समझना चाहिये और जिसे चरणानु योगकी दृष्टिसे अणुव्रत, महाव्रत आदिरूप व्यवहारसम्यक्चारित्र, सरागचारित्र या सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसांपरायचारित्र कहा गया है उसे करणानुयोगकी दृष्टिसे क्षायोपशमिक चारित्र समझना चाहिये ।। उपर्युक्त कथन हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचा देता है कि व्यवहार और निश्चय दोनों ही प्रकारके मोक्षमार्गका प्रारम्भ चतुर्थ गुणस्थानसे ही होता है, चतुर्थ गुणस्थानसे पूर्व किसी भी तरहके मोक्षमार्गका प्रारम्भ नहीं होता है, ऐसा जानना चाहिये । आगे इसी बातको स्पष्ट किया जा रहा है। सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके यिषयमें यह बात कही गयी है कि वह दर्शनमोहकी मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूप तीन तथा चारित्रमोहकी अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इस २. छहढाला, ४॥१४॥ १. प्रवचनसार, गाथा ११ । ३. वही, गाथा १२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy