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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ४१ भी आगममें बतलाया गया है। इस प्रकार कहना चाहिये कि यथायोग्य कर्मोके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके होनेपर जीवकी भी क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक अवस्थायें हो जाया करती हैं। उपर्युक्त आठ कर्मों मेंसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों की प्रत्येक संसारी जीवमें अनादिकालसे क्षयोपशमरूप अवस्था हो रही है क्योंकि कभी इनको सर्वथा उदय रूप अवस्था नहीं होती। इतना अवश्य है कि अनन्त संसारी जीवोंने अपने पुरुषार्थ द्वारा इन तीनों कर्मोका सर्वथा क्षय कर डाला है और यदि कोई संसारी जीव अब भी पुरुषार्थ करे तो वह भी इनका सर्वथा क्षय कर सकता है। इस तरह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंके यथायोग्य निमित्तसे सामान्यरूपमें जीवकी क्षायोपशमिक और क्षायिक दो ही प्रकारको अवस्थायें होना संभव है, औदयिक और औपशमिक अवस्थायें इनमें संभव नहीं हैं। इतना अवश्य है कि यदि इन कर्मोके यथायोग्य अन्तर्भेदोंकी अपेक्षा विचार किया जाय तो उनके निमित्तसे फिर जीवकी औदयिक अवस्था भी संभव है। जैसे जीवमें केवलज्ञान और केवलदर्शनका जब तक सर्वथा अभाव विद्यमान है तब तक इनके घातक केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण कर्मोंका उदय विद्यमान रहनेके कारण जीवकी केवलज्ञान और केवलदर्शनके अभावरूप औदयिक अवस्थायें भी मानी जा सकती हैं। इसी प्रकार वेदनीय, आय, नाम और गोत्र इन चार कर्मोको प्रत्येक जीवमें अनादिकालसे तो उदयः रूप अवस्थायें ही रही हैं । कभी इनकी उपशम या क्षयोपशम रूप अवस्था न तो हुई और न होगी, लेकिन इनके सम्बन्धमें भी यह बात है कि अनन्त संसारी जीवोंने अपने पुरुषार्थ द्वारा इन चारों कर्मोका सर्वथा क्षय अवश्य कर डाला है और यदि कोई संसारी जीव अभी भी पुरुषार्थ करे तो इनका सर्वथा क्षय कर सकता है। इस तरह कहना चाहिये कि इन कर्मों के निमित्तसे जीवकी औदयिक और क्षायिक दो अवस्थायें ही संभव है । परन्तु यहाँ पर इतना ध्यान रखना चाहिये कि इनके क्षयके निमित्तसे होनेवाले क्षायिक भावोंकी गणना आगमोक्त क्षायिक भावोंमें करना उपयोगी न होनेके कारण आवश्यक नहीं समझा गया है। इनके क्षयके निमित्तसे होनेवाले जीवके क्षायिक भावोंको या तो अव्याबाध, अवगाहना, सूक्ष्मत्व और अगुरुलगुत्व गुणोंके रूपमें प्रतिजीवी भाव आगममें कहा गया है या फिर सामान्यतया संपूर्ण कर्मों के क्षयसे उत्पन्न होनेवाला सिद्धत्व भाव इन्हें कह दिया गया है। इन सात कर्मोके अतिरिक्त जो मोहनीय कर्म शेष रह जाता है उसकी प्रत्येक संसारी जीवमें अनादिकालसे तो उदयरूप अवस्था ही विद्यमान रहती है। लेकिन भूतकालमें अनन्त संसारी जीवोंने अपने पुरुषार्थ द्वारा अनेक बार यथायोग्य उपशम या क्षयोपशम करके अन्तमें उसका सर्वथा क्षयकर मुक्तिको प्राप्त कर लिया है। अनेक संसारी जीवोंमें वह अभी भी यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूपमें बना हुआ है तथा जिन जीवोंमें वह अभी भी उदय रूपमें बना हआ है वे भी अगर परुषार्थ करें तो उसकी इस उदयरूप हालतको परिवर्तित करके उपशम, क्षय या क्षयोपशमरूप अवस्था बना सकते हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मोहनीय कर्मका यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होने पर जीवकी क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये चारों प्रकारकी अवस्थायें संभव होती हैं। इस प्रकार जिन संसारी जीवोंने अनादिकालसे अभी तक अपने पुरुषार्थ द्वारा समस्त कर्मोंका क्षय कर डाला है वे तो मोक्षको प्राप्त हो चुके है और जो संसारी जीव आगे जब इन सभी कर्मोका सर्वथा क्षय कर लेंगे वे भी तब मोक्षको प्राप्त हो जायेंगे । १. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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