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________________ निश्चय और व्यवहार मोक्ष-मार्ग जैनागमकी व्यवस्था यह है कि प्रत्येक जीव अनादिकालसे संसारी बनकर हो रहता आया है। परन्तु संसार-प्राप्त संपूर्ण जीवोंमें बहुतसे ऐसे भी जीव हो गये है, जिन्होंने अनादिकालीन अपने उस संसारको समाप्त कर दिया है और उनमें आज भी बहतसे ऐसे जीव हैं जो अपने अन्दर उस अनादिकालीन संसारको समाप्न करनेकी सामर्थ्य' छिपाये हुए हैं। संसारकी परिसमाप्ति जीवके साथ अनादिकालसे ही सम्बद्ध ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्मों, शरीरादि नोकर्मो और इनके निमित्तसे जीवमें उत्पन्न होनेवाले भावकर्मोका समूल क्षय हो जानेपर हुआ करती है। इस तरह कहना चाहिये कि उक्त संपूर्ण कर्मोके समूल क्षय हो जाने अथवा यों कहिये, कि उक्त संपूर्ण कर्मोंसे जोव द्वारा सर्वथा छुटकारा पा जानेका नाम मोक्ष जानना चाहिये। जैनागममें यह भी बतलाया गया है कि जीवोंको मोक्षकी प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी उपलब्धि हो जानेपर ही संभव है। अतः वहाँपर यह और बतलाया गया है कि उक्त सम्यग्दर्शन आदि तीनोंका समाहार ही मोक्षका मार्ग है। चूंकि मोक्षमार्गस्वरूप उक्त सम्यग्दर्शनादिक तीनों निश्चय तथा व्यवहारके भेदसे दो-दो भेद रूप होते हैं अतः इस आधारपर मोक्षमार्गको भी निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्ष-मार्गके रूपमें दो भेद रूप जान लेना चाहिये। इससे यह सिद्धान्त फलित होता है कि जीवको मोक्षकी प्राप्ति व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्ररूप व्यवहारमोक्षमार्ग तथा निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्चारित्ररूप निश्चयमोक्षमार्ग दोनोंका अवलम्बन प्राप्त होनेपर ही होती है। इतना अवश्य है कि निश्चयसम्यग्दर्शनादिरूप निश्चयमोक्षमार्ग तो मोक्षका साक्षात् कारण होता है और व्यवहारसम्यग्दर्शनादिरूप व्यवहारमोक्षमार्ग उसका परंपरया अर्थात निश्चयमोक्षमार्गका कारण होकर कारण होता है। श्रद्धेय पंडितप्रवर दौलतरामजीने छहढालाकी तीसरी ढालके प्रारम्भमें इस विषयपर संक्षेपसे बहत ही सुन्दर प्रकाश डाला है और वह निम्न प्रकार है १. आप्तमीमांसा, श्लोक १००। जीवभव्याभव्यत्वानि च । तत्त्वार्थसूत्र २-७। २. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ।-तत्त्वार्थसूत्र, १०-२ । ३. समयसार, गाथा १७, १८ । ४. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।-तत्त्वार्थसूत्र १-१ । पंचास्तिकाय, गाथा १०६ । ५. पंचास्तिकाय, गाथा १६०, १६१ । ६. निश्चयव्यवहारमोक्षकारणे सति मोक्ष-कार्य सम्भवति । -पंचा० कागा०१०६ की टीका, आ० जयसेन । ७. निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात । -पंचास्तिकाय, गाथा १६०, टीका, आचार्य अमृतचन्द्र । निश्चयमोक्षमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टव्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । -पंचास्तिकाय, गा० १६२. टीका, आचार्य अमृतचन्द्र । व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम् । -पंचास्तिकाय गाथा १६३ की टीका, आचार्य अमृतचन्द्र । साधको व्यवहारमोक्षमार्गः साध्यो निश्चयमोक्षमार्गः। -परमात्मप्रकाश-टीका, पृष्ठ १४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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