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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : २९ वेदान्त दर्शनमें इन सुख और दुःख रूप हालतोंको आत्माकी हालतें नहीं स्वीकार किया गया है। वहाँपर तो आत्माको सत्, चित् और आनन्दमय ही स्वीकार किया गया है। सुख और दुःख 'जिनका अनुभवन हमें सतत होता रहता है ये सब मायाके रूप हैं और मिथ्या है तथा इनसे आत्मा सदा अलिप्त रहती है। जैन-संस्कृतिमें भी आत्माको वेदान्त दर्शनकी तरह यद्यपि सत्, चित् और आनन्दस्वरूप ही माना गया है परन्तु सतत प्रत्येक प्राणीके अनुभवनमें आने वाले सुख और दुःखको जहाँ वेदान्त दर्शनमें मिथ्या स्वीकार किया गया है वहाँ जैन-संस्कृतिमें इन्हें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होनेकी वजहसे उसी आनन्दगुणके विकारी परिणमन माना गया है। जैन-दर्शनमें वेदान्त दर्शनकी अपेक्षा आत्मतत्त्वकी मान्यताके विषय में यही विशेषता है । जैन-संस्कृतिमें आत्माके आनन्दगणके इन विकारी परिणमनोंका कारण आत्माका पुदगलद्रव्यके साथ अनादि संयोग माना गया है और साथ ही वहाँ यह भी स्वीकार किया गया है कि पुदगल द्रव्यके संयोगको आत्मासे सर्वथा पृथक् किया जा सकता है तथा आनन्द गुणके सुख-दुःख रूप विकारोंको भी नष्ट किया जा सकता है। इस प्रकार स्वतः सिद्ध और अनादिनिधन चितशक्ति-विशिष्ट आत्मतत्त्वको स्वीकार करनेके साथसाथ जैन-संस्कृतिमें यह भी स्वीकार किया गया है कि आत्मा अनादिकालसे परतन्त्र (बद्ध) है परन्तु स्वतन्त्र (बन्धरहित) हो सकता है; अशुद्ध है परन्तु शुद्ध हो सकता है; मोह, राग तथा द्वेष आदि विकारोंका घर है, परन्तु ये सब विकार दूर किये जा सकते हैं; संसारी है परन्तु मुक्त हो सकता है; अल्पज्ञानी है परन्तु पूर्ण ज्ञानी हो सकता है। इसी तरह कभी तिर्यक्, कभी मनुष्य, कभी देव और कभी नारकी होता रहता है, परन्तु इन सबसे परे सिद्ध भी हो सकता है। यदि जैन संस्कृतिके द्रव्यानुयोग पर दृष्टि डाली जाय तो मालूम होता है कि आत्माकी बद्धता और अबद्धता, अशुद्धि और शुद्धि आदिके विषयमें कुछ भी जानकारी देने में वह सर्वथा असमर्थ है । कारण कि द्रव्यानयोग सिर्फ द्रव्यके स्वरूपका ही प्रतिपादन कर सकता है और द्रव्यका स्वरूप वही हो सकता है जो उस द्रव्यमें सतत विद्यमान रहता हो अत आत्माका स्वरूप स्वतः सिद्ध और अनादिनिधन चित्शक्तिको ही माना जा सकता है। आनन्द यद्यपि मुक्तात्माओंमें तो पाया जाता है, परन्तु संसारी आत्माओंमें उसका अभाव रहता है। इसी तरह बद्धता और अबद्धता, अशुद्धि और शुद्धि आदि कोई भी अवस्था आत्माका स्वरूप नहीं हो सकती है । कारण, यदि संसारी आत्मामें अबद्धता और शुद्धि आदि अवस्थाओंका अभाव है तो मुक्तात्माओंमें बद्धता और अशुद्धि आदि अवस्थाओंका अभाव रहता है। इसलिए द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे जब आत्मतत्त्वके बारेमें कुछ निर्णय करना हो तो वह निर्णय यही होगा कि आत्मा स्वतः सिद्ध और अनादिनिधन चित्शक्तिस्वरूपका धारक है। कारण कि यह स्वरूप संसारी और मुक्त दोनों प्रकारको सब आत्माओंमें पाया जाता है। यही कारण है कि द्रव्यानुयोगकी दृष्टिमें एकेन्द्रियसे लेकर समस्त संसारी आत्मायें और समस्त मुक्त आत्मायें समान मानी गयी हैं। क्योंकि समस्त संसारी और सिद्ध आत्माएँ सब काल और सब अवस्थाओंमें स्वतःसिद्ध और अनादिनिधन चित्शक्ति-रूप स्वरूपसे रहित नहीं होती है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि यदि द्रव्यानुयोग आत्माकी बद्धता और अबद्धता, अशद्धि और शद्धि आदिका प्रतिपादन नहीं करता है तो ये सब आत्माकी अवस्थाएँ नहीं मानी जा सकती है. कारण कि यदि इन्हें आत्माकी अवस्थाएँ नहीं माना जायगा तो संसारी और मुक्तका भेद समाप्त हो जायगा और इस तरह १. पंचाध्यायी, २-३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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