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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : २३ है । ये सब द्रव्य यद्यपि अपने-अपने स्वतन्त्र रूपमें अनादि हैं और अनिधन ' हैं फिर भी अपनी-अपनी अवस्थाओंके रूपमें परिणमनशील हैं । अतः सब वस्तुओंके परिणमनशील होने की वजहसे ही विश्वको 'जगत्' नामसे भी पुकारा जाता है क्योकि 'गच्छतीति जगत्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'जगत्' शब्दका अर्थ 'परिणमनशील वस्तु' स्वीकार करनेका ही यहाँपर अभिप्राय है । ३. द्रव्यानुयोग में आत्म-तत्त्व ऊपर जैन संस्कृति के अनुसार जितना कुछ विश्वके पदार्थों का विवेचन किया गया है वह सब विवेचन द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे ही किया गया है । उस विवेचन में विश्वके पदार्थों में जीवद्रव्यको भी स्थान दिया गया है इसलिए यहाँ पर द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे उसका भी विवेचन किया जाता है । जीव द्रव्यका ही अपर नाम 'आत्मा' है । इसका ग्रहण स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन बाह्य इन्द्रियोंसे न हो सकने के कारण "विश्वके पदार्थोंमें आत्माको स्थान दिया जा सकता है या नहीं ?" - यह प्रश्न प्रत्येक दर्शनकारके समक्ष विचारणीय रहा है। इतना होते हुए भी हम देखते हैं किसी भी दर्शनकार ने स्वकीय ( स्वयं अपने ) अस्तित्वको अमान्य करनेकी कोशिश नहीं की है । वह ऐसी कोशिश करता भी कैसे ? क्योंकि उसका उस समयका संवेदन ( अनुभवन) उसे यह बतलाता रहा कि वह स्वयं दर्शनकी रचना कर रहा है इसलिए वह यह कैसे कह सकता था कि "उसका निजी कोई अस्तित्व ही नहीं है ?" यही बात सभी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके विषयमें कही जा सकती है अर्थात् कोई भी संज्ञी पंचेन्द्रिय अपने अस्तित्व विषयमें संदेहशील नहीं रहते हैं । कारण कि जिस समय जो कुछ वे करते हैं उस समय उन्हें इस बातका अनुभवन होता ही है कि वे अमुक कार्य कर रहे हैं । इस तरह जब वे अपने अनुभव के आधारपर स्वयं अपने को यथासमय उस कार्यका कर्ता स्वीकार करते रहते हैं तो फिर वे ऐसा संदेह कैसे कर सकते हैं कि 'उनका अपना कोई अस्तित्व है या नहीं ?' यहाँपर अपने अस्तित्वका अर्थ ही आत्माका अस्तित्व है । प्रश्न - यद्यपि यह बात ठीक है कि सभी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंको सतत स्वसंवेदन ( अपना अनुभवन ) होता रहता है परन्तु शरीरके अन्दर व्याप्त होकर रहने वाला 'मैं' शरीरसे पृथक् तत्त्व हूँ - ऐसा संवेदन तो किसीको भी नहीं होता है, अतः यह बात कैसे मानी जा सकती है कि 'शरीरसे अतिरिक्त 'आत्मा' नामका कोई स्वतन्त्र तत्त्व है ?' उत्तर- जितने भी निष्प्राण घटादि पदार्थ हैं उनकी अपेक्षा प्राणवाले शरीरोंमें निम्नलिखित तीन विशेषताएँ पायी जाती हैं (१) निष्प्राण घटादि पदार्थ दूसरे पदार्थोंका ज्ञान नहीं कर सकते हैं जब कि प्राणवान् शरीरोंमें दूसरे पदार्थों का ज्ञान करनेको सामर्थ्य पायी जाती है । (२) निष्प्राण घटादि पदार्थ स्वतः कोई प्रयत्न नहीं कर सकते हैं जबकि प्राणवान् शरीरोंको हम स्वतः प्रयत्न करते देखते हैं । (३) निष्प्राण घटादि पदार्थों में 'मैं सुखी हूँ या दुःखी हूँ, मैं गरीब हूँ या अमीर हूँ, मैं छोटा हूँ या १. पंचाध्यायी, अध्याय १, श्लोक ८ । २. वही, अध्याय १, श्लोक ८९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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