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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १५ मार्दव, सत्य, शौच और संयम धर्मोंमें हो जाता है, क्योंकि कोई भी मनुष्य जबतक अपने जीवनमें इन छह धर्मोंको स्थान नहीं देगा तब तक सम्यग्दृष्टि त्रिकालमें नहीं हो सकता है। इसका भी कारण यह है कि सम्यग्दृष्टिकी वृत्ति और प्रवृत्ति कभी अन्याय, अत्याचार आदि उच्छृंखलताओंको लिए हुए नहीं हो सकती है। और यदि इस तरह की वृत्ति और प्रवृत्ति किसीकी होती है तो वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है । इसी प्रकार सम्यक्चारित्रका अन्तर्भाव तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य धर्मो में हो जाता है। जैसा कि इन धर्मो के पूर्व में किए गए स्वरूप विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है । सम्यग्ज्ञानके सम्बन्धमें यदि विचार किया जाए तो कहा जा सकता है कि ज्ञान अपने आपमें न तो धर्म है और न अधर्म है, इसलिए जब तक उसका सम्बन्ध मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र से रहता है तब तक तो उसका अन्तर्भाव अधर्म में होता और जब उसका सम्बन्ध सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रसे हो जाता है तब उसका अन्तर्भाव धर्म में हो जाता है । दूसरे प्रकारमें जो अहिंसादिकको धर्म कहा गया है उनका समावेश क्षमा आदि धर्मो में निम्न प्रकार होता है। अहिंसा और अचौर्य ये दोनों निवृत्तिपरक धर्म है क्योंकि हिंसासे निवृत्ति अहिंसा, और चोरीसे निवृत्ति अचीर्य कहलाता है। दूसरोंके लिए अप्रिय वचन बोलना अथवा वध, बन्धन, ताड़न, छेदन, भेदन आदि क्रियाओं द्वारा कष्ट पहुँचाना हिंसा है, अतः इन सबसे निवृत्ति स्वरूप अहिंसाका समावेश क्षमाव में होता है। इसी प्रकार दूसरोंकी वस्तुओंको उनकी आज्ञाके बिना अपनी बना लेना चोरी है। यह चोरी अपने आपमें अधर्म न होकर दूसरोंको कष्ट पहुँचाने रूप हिंसाका कारण होनेसे ही अधमं है अतः कारणमें कार्यका उपचार होनेसे चोरी भी एक तरहसे हिंसाका ही रूप सिद्ध होती है, इसलिए चोरोसे निवृत्तिरूप अचौर्यधर्मका समावेश भी क्षमाघ में हो जाता है। तथा यदि और बारीकीसे अहिंसा व अचार्यका विश्लेषण किया जाय तो अहिंसाका समावेश क्षमाके साथ-साथ मार्दवधर्म में होता है, कारण कि अप्रिय वचन बोलने का अर्थ दूसरोंका तिरस्कार करना ही तो है अतः दूसरोंका तिरस्कार नहीं करने रूप अहिंसाका समावेश मार्दवधर्म में भी हो जाता है । इसी तरह अचीर्य धर्मका समावेश आर्जव धर्ममें करना उचित है कारण कि छल-कपट करना चोरीका ही रूपान्तर है । सत्य धर्म प्रवृत्तिपरक धर्म है । लोकमें दूसरोंको कष्ट नहीं पहुँचाना, इनका तिरस्कार नहीं करना और उन्हें धोखे में नहीं डालना -- यह तो धर्म है ही, परन्तु अहिंसा और अचौर्य धर्मोकी सीमा केवल इस तरहके अधर्म से निवृत्ति रूपमें ही नहीं समाप्त हो जाती है प्रत्युत इस निवृत्तिके आगे इनका कुछ प्रवृतिपरक रूप भी होता है । इसलिये उक्त प्रकारसे अहिंसा और अचौर्यवृत्तिके धारक मनुष्यको तीर्थकर महावीरकी देशनामें यह उपदेश दिया गया है कि दूसरोंके प्रति हित-मित प्रिय वचन बोलो, उनके साथ सहानुभूति और सहृदयताका व्यवहार भी करो तथा आवश्यकतानुसार उन्हें यथाशक्ति तन-मन-धन से सहायता भी पहुँचाओ। इस तरह अहिंसादि पाँच धर्मो में समाविष्ट सत्यन्धर्म और क्षमा आदि दश धर्मो में समाविष्ट सत्य धर्म – इन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं रह जाता है। ये अहिंसा आदि तीन धर्म और क्षमा आदि चार धर्म लौकिक धर्म हो हैं, कारण कि ये सभी मानव-संगठनकी स्थिरताके आधार हैं । 'कुशील' शब्दका लौकिक दृष्टिसे अर्थ होता है-पर वस्तुओंका जोवनको हानिकर एवं अमर्यादित होकर उपभोग करना, इसलिए इससे विपरीत अर्थके बोधक ब्रह्मचर्य धर्मका समावेश संयम धर्ममें होता है। परन्तु यहाँ पर इतना और ध्यान रखना चाहिए कि पारमार्थिक धर्मकी ओर बढ़ने वाले मनुष्य के लिए जो उपभोग आज आवश्यक है, कल वह उसे अनावश्यक भी हो जाता है। अतः ऐसे अनावश्यक उपभोगका त्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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