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________________ ११२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ हैं।१५ सन् १९१५ की दिगम्बर जैन डायरेक्टरीसे मालूम होता है कि उस समयमें गोलालारोंकी सबसे अधिक जनसंख्या ललितपुर जिला झाँसी (४००) व भिण्ड (२७०) में बसती है। यह संभव है कि ये ललितपुरमें अच्छा व्यवसाय होनेके कारण अन्यत्रसे आकर बसे हों (कहावत है-ललितपुर कबहुँ ना छोडिये, जब तक मिले उधार)। इनका उद्गम कभी-कभी भिडके आसपाससे माना जाता है, जो सही प्रतीत होता है। सन् १९४० की गोलापूर्व डायरेटरीके अनुसार गोलापूर्वोकी सबसे अधिक जनसंख्या पुरानी ओरछा रियासतमें (१,६७८) अर्थात् टीकमगढ़ जिलेमें व सागर जिलेकी बंडा तहसीलमें (१,७३२) में थी । ये दोनों लगे हुए हैं । जैन तीर्थ आहार व कई अन्य जैन तीर्थ, इसी क्षेत्रमें हैं। दिगम्बर जैन डायरेक्टरी के अनुसार गोलसिंघारे सबसे अधिक इटावा उत्तर प्रदेश (२९८) में बसे हैं।१४ २. गोलापूर्व बुन्देलखंडके आंतरिक भाग (अहारके आसपास) से ही अन्यत्र जाकर बसे हैं, ऐसा प्रतीत होता है ।२५ सागरके फुसकेले सिंघई लगभग १२५ वर्ष पहले मदनपुर (जि० झाँसी) से आये थे । पाटन (जि. सागर) के रांधेले सिंघई कई पीढ़ियों पहले अहारसे आकर बसे हैं। हटा (जि० दमोह) के टैंटवार सिंघई बमनी (जि. छतरपुर) से करीब २०० वर्ष पहले आये थे। रीठी (जि० जबलपुर) के पड़ेले १२५ वर्ष पहले पठा (जि० टीकमगढ़) के वासी थे। कटनीके पटवारी कोठिया करीब ९० वर्ष पहले गोरखपुरासे आये थे। इन परिवारोंके सदस्य अब अनेक अन्य स्थानोंमें जाकर बस गये है। सन् १९०२ के दमोह गजेटियरके अनुसार दमोहके गोलापूर्व टीकमगढ-टेहरीके आसपाससे आये हैं। ३. सभी गोलापूर्वोमें बुन्देलखंडी बोलनेका ही चलन है । जो बुन्देलखण्डके बाहर कई पीढ़ियोंसे हैं, वे खड़ी बोली बोलने लगे हैं। ४. बुन्देलखण्डकी सभी जैन जातियोंमें परस्पर पंक्तिभोजका व्यवहार रहा है । परवार-मूर-गोत्रावली व वर्धमान पुराणमें साढ़े बारह समकक्ष जैन जातियाँ कहीं हैं जिनमें परवार, गोलापूर्व, गोलालारे व गोलसिंघारे शामिल है। गोलापूर्वो व परवारों में कभी-कभी विवाह सम्बन्ध भी हुआ करता था ।६ एकबार एक प्रस्ताव रखा गया था कि पचविसे गोलापूर्वोके गोलालारे जातिमें मिला लिया जाये (पर मान्य नहीं हुआ था) | बुन्देलखण्डकी जैन जातियोंमें कुछ गोत्रोके नाम एकसे हैं। पंचरत्न गोत्र गोलापूर्व, गोलालारे व परवार तीनों जातियोंमें है। इस सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि ये जातियाँ एक-दुसरेके आस-पास हो निवास करती होंगी। गोलापूर्व जातिके प्राचीन शिलालेख अहारक्षेत्रके आस-पास बड़ी संख्यामें पाये गये हैं। पपौराजीमें ई० ११४५ के, नावईमें ई० ११४६ का, अहारजीमें ११४६ व ११५६ के, छतरपुरमें ११४९ का, ललितपुरमें ११८६ का, महोबामें ११६२ व ११८६ के लेख पाये गये हैं। इस क्षेत्रमें कई अनेक अन्य शिलालेख पाये गये हैं, जिनपर किसी जातिके नामके उल्लेख नहीं हैं, इनमेंसे कई गोलापूर्वोके होंगे। महोबामें एक कुंआ खोदते समय २४ जैन प्रतिमायें प्राप्त हुई थीं । इनमेंसे उपरोक्त एक पर सं० १२१९ (ई० ११६२), दो पर सं० १२४३ (ई०११८६) पर गोलापूर्वान्वयके उल्लेख हैं। चार अन्य पर सं० ८२२, सं०८३१, सं० ११४४ (६०१०८७) व सं० १२०९ (ई० ११५२) के लेख है, पर किसी जातिका उल्लेख नहीं है। सं० ८३१ व सं०८२२ के लेखोंका संवत् विक्रम सं० (ई० ७६५ व ७७४) या शक सं० (ई० ९०० व ९०९) हो सकता है। पर यह भी हो सकता है कि ये कलचुरि सं० हों (ई. १०७१ व १०८०)। इस समयके आसपास कलचुरि-चेदिके कर्णदेवने चंदेलोंके राज्यपर कुछ वर्षों के लिये अधिकार कर लिया था। कुछ ही वर्षों बाद चंदेल कीर्तिवर्माने पुनः अधिकार कर लिया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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