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________________ ९४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ (३) प्रेरक निमित्तकारणभूत कुम्भकार एवं अन्य विविध दण्डादि प्रेरक और उदासीनभूत कीली आदि अप्रेरक निमित्त कारणोंकी सहायतासे हो उपादानकारणभूत मिट्टी स्थास, कोश, कुशूल व घट पर्याय रूप परिणत होती है। इस प्रकार स्व-परप्रत्यय पर्याय नियत क्रमबद्ध और अनियत क्रमबद्ध भी होती है। यद्यपि आम्रफलका परिपाक अपने समय पर होता है, पर क्रत्रिम उष्मासे उन्हें समयके पूर्व पकाया जा सकता है । वहाँ परिपाकरूप परिणमन अक्रमबद्ध ही होगा। जीवका मरण उसकी निश्चित आयु पर ही होगा, पर विषपान, शस्त्राघात, अग्निदाह, अकस्मात् दुर्घटना आदि वश पहले भी अर्थात् अक्रमबद्ध समयपूर्व भी देखा जाता है। सोनगढ़सिद्धान्तवादी केवलज्ञान-विषयतापर ही पर्यायोंका परिणमन मानते हैं पर उन्हें इस केवलज्ञानविषयतापर स्वयं विश्वास नहीं है। अन्यथा ९० वर्ष जितनी लम्बी आयु भोग लेने पर भी श्रीकानजी स्वामी अन्तिम समय मरणभयसे पीड़ित न होते और शान्तिपूर्वक सल्लेखनामरणकी उपेक्षा कर जस्लोक अस्पताल में बाल-बालमरणपूर्वक शरीर न छोड़ते । प्रत्युत जैनागमानुसार संयमके सोपानपर चढ़ते ।। सोनगढ़की विचारधारा भवितव्यतापर जोर देती है। पर भवितव्यताके अनुसार ही कार्य हो, तो बुद्धि, पुरुषार्थ और अन्य सहायक कारणोंके बिना भी कार्य हो जायगा। किन्तु ऐसा नहीं है। आचार्य समन्तभद्रस्वामीका वचन है-'अलंध्यशक्तिर्भवित्तव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कतकालिंगा'-कि भवितव्यता, बुद्धि, व्यवसाय एवं विविध कारणसामग्रोपर अवलम्बित है। 'जं जस्स जम्मि देशे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि' इत्यादि कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथाओंका अभिप्राय अपने प्रयत्नमें असफल लोगोंको साम्यभावमें स्थिर करना ही है। स्वपर-प्रत्यय पर्यायोंके विषयमें उत्पत्ति और ज्ञप्तिका यह अन्तर सोनगढ़विचारधाराके पक्षधर लचन्द्रजी शास्त्री वाराणसीने भी जैन तत्त्वमीमांसा' में निम्न प्रकार स्वीकार किया है कि 'यद्यपि हम यह मानते हैं कि केवलज्ञानको सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंको जानने वाला मानकर भी क्रमबद्ध पर्यायोंकी सिद्धि मात्र केवलज्ञानके आलम्बनसे न करके कार्य-कारणपरम्पराको ध्यानमें रखकर ही की जानी चाहिए।' इस प्रकार सोनगढ़सिद्धान्तवादी वर्गको कार्यकारणभावके आधारपर होनेवाली स्वपर-प्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध तथा अक्रमबद्ध तथा केवल ज्ञानसे होनेवाली उनकी ज्ञप्तिको क्रमबद्ध मान्य करनेमें आचार्यपरम्पराके समान कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। केवलज्ञान ही क्यों, मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनपर्ययज्ञानमें भी ज्ञप्ति-अपेक्षा ऐसा क्रमबद्ध प्रतिभासन यथायोग्य होता है। उनका विश्लेषण तो श्रुतज्ञान ही कारणसामग्रीके आधारपर करता है । आखिर पाँचों ज्ञानोंमें केवल श्रुतज्ञान ही वितर्कात्मक है । अतएव पदार्थोके परिणमनमें केवलज्ञानकी विषयताको आधार न मानकर कार्यकारणभावको ही आधार मानना चाहिए, यही आगमपरम्परा है और तदनुसार पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी । यही निष्कर्ष आदरणीय पण्डित व्याकरणाचार्यजीने इस प्रबन्धमें प्रस्तुत किया है। अनेकान्तमय आगम भी यही कहता है। व्याकरणाचार्यजीने तर्क और आगमके आधारपर इसमें गहन चिन्तन किया है तथा पर्यायोंको क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध सिद्ध किया है । अतएक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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