SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाग्य और पुरुषार्थ : एक नया अनुचिन्तन : समीक्षात्मक अध्ययन • डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, निदेशक महावीर-ग्रन्थ अकादमी, जयपुर भाग्य और पुरुषार्थ विषयपर विद्यार्थी अवस्थामें हम लोग वाद-विवाद किया करते थे। एक बक्ता भाग्यकी वकालात करता और कहता कि "सकल पदारथ है जग माहीं भाग्यहीन नर पावत नाहीं।" दुसरी ओरसे पुरुषार्थका समर्थन करने वाला कहता कि 'उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी, देवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति" और पुरुषार्थ करनेको ही एकमात्र सफलताकी कुंजी बतलाता। वर्तमानमें यद्यपि ये विषय 'आउट ऑफ डेट' माने जाने लगे हैं, लेकिन फिर भी कभी-कभी भाग्य और पुरुषार्थपर वाद-विवाद छिड़ ही जाता है। पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यकी लघपुस्तक "भाग्य और पुरुषार्थः एक नया अनुचिन्तन" है । इसपर समीक्षात्मक लेख लिखनेके लिए डॉ० कोठिया साहबका पत्र मिला, तो मैंने समझा कि पुस्तकमें वही लकीर पीटने जैसी बात होगी और लेखकने भाग्य और पुरुषार्थमेंसे किसी एकका समर्थन किया होगा। लेकिन जब पुस्तक देखी और पढ़ी तो वह हमारे अनुमानसे एकदम विपरीत मिली तथा लेखकके भाग्य और पुरुषार्थपर उनके चिन्तनशील विचारोंको पढ़कर बड़ी प्रसन्नता हुई। पंडितजीने भाग्य और पुरुषार्थपर अपना एक नया चिन्तन किया है और उनके वर्णनके गूढ़ तत्त्वोंको इसमें उड़ेल दिया है। पुस्तकमें भाग्यका लक्षण देते हुए लिखा है कि सामान्यरूपसे जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालरूप सभी पदार्थों में अपनी योग्यताके बलपर प्राकृतिक ढंगसे जो प्राप्त होता है उसे भाग्य कहते है । और जीवद्वारा अपने आध्यात्मिक और लौकिक जीवनमें पौद्गलिक मन, वचन और कायके अवलम्बनपूर्वक जो प्रयत्न किया जाता है उसे पुरुषार्थ कहते हैं । पंडितजीने भाग्य शब्दका आगे चलकर और भी स्पष्टीकरण किया है। उन्होंने लिखा है कि भाग्यका अर्थ वह वैभाविक शक्ति है जो सभी जीवोंमें तथा कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणारूप पुद्गलोंमें सम्भवतः पायी जाती है और उस वैभाविक शक्तिके आधारपर होनेवाली वैभाबिक पर्याय ही भाग्यका रूप होती हैं। लेखकने पुरुषार्थको दो भागोंमें विभाजित किया है । एक शुभ पुरुषार्थ और दूसरा अशुभ पुरुषार्थ । शुभ पुरुषार्थ पुण्यकर्मोके उदयमें किया जाता है अर्थात् पुण्यार्जनके लिए जो पुरुषार्थ किया जाता है वह शुभ पुरुषार्थ है तथा पापकर्मोके उदयमें जो कुछ किया जाता है वह अशुभ पुरुषार्थ कहलाता है। जिन पापकार्योंसे जीवको दुर्गति मिलती है, कष्ट मिलता है, वेदना सहनी पड़ती है वह सब जीवके अशुभ पुरुषार्थका हो फल है । वह जीव अपने वर्तमान शुभ और अशुभ पुरुषार्थ के बलपर आगामी कर्मों और नोकर्मोंका बन्ध करता है। इस प्रकार प्रत्येक जीवमें, कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणारूप पुद्गलोंमें विभाव परिणमन होनेकी यह प्रक्रिया अनादिकालसे चल रही है। पंडितजीका भाग्य-पुरुषार्थपर लिखनेका उद्देश्य यह है कि जीव किस प्रकार अपने पुरुषार्थके बलपर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। और अपने इस कथनको पूर्णतः सत्य सिद्ध करनेके लिए उसमें विभिन्न पक्षोंका आश्रय लिया है। लेखकने पुरुषार्थ के चार भेद बतलाते हुए कहा है कि प्रथम पुरुषार्थ जीवों द्वारा संकल्पी पाप या मिथ्याचारित्ररूप अशुभ प्रवृत्तिके रूपमें किया जाता है। द्वितीय पुरुषार्थ जीवों द्वारा आरम्भी पाप या अविरतरूप अशुभ प्रवृत्तिके रूपमें किया जाता है । तृतीय पुरुषार्थ जीवों द्वारा अशुभप्रवृत्तिके एकदेशत्याग--देशविरत अथवा पुण्यरूप प्रवृत्तिके रूपमें किया जाता है और चतुर्थ पुरुषार्थ जीवों द्वारा अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy