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________________ ७२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ यहाँ यह समझना आवश्यक है कि यदि वस्तुमें विवक्षित रूपसे परिणमित होनेकी योग्यता नहीं है तो अनेक निमित्त मिलकर भी उसमें उस परिणमनको उत्पन्न नहीं कर सकते । उसी प्रकार विवक्षित रूपसे परिणमित होनेको योग्यता होनेपर भी उस रूप परिणमित होनेके लिये यदि निमित्तोंकी अपेक्षा अपेक्षित हो तो जबतक निमित्तोंका सहयोग उसे प्राप्त नहीं होगा, तबतक वस्त केवल परिणमित होने की योग्यताके बलपर कदापि उस रूप परिणमित नहीं होगी। नियमसार गाथा १४ में स्पष्ट कथन है कि पर्याय दो प्रकारकी होती है-एक स्वपरसापेक्ष और दूसरी निरपेक्ष । इनमें निरपेक्ष पर्याय स्व-उपादानके बलपर होती है और स्वपरसापेक्ष पर्याय उपादान और निमित्त दोनोंके सहयोगसे होती है समयसारकी गाथा ८० और ८१ बताती हैं कि जीवके परिणामके निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप परिणमित होते हैं और पुद्गल कर्मोका निमित्त पाकर जोवका परिणमन होता है। जीव पदगलके परिणमनका और कर्म जीवके परिणमनका कर्ता नहीं है किन्तु निमित्त-नैमित्तिकभावसे दोनोंका परिणमन होता है। जैसे यह कहा जाता है कि जब कार्य होता है, उस समय निमित्त स्वयं उपस्थित हो जाता है । इसे सही परिप्रेक्ष्यमें कहा जाय तो उसे यों कह सकते हैं अथवा यों कहना समीचीन होगा कि जब कार्य निष्पन्न होता है, उस समय उसकी सहकारी सामग्रीको निमित्त संज्ञा प्राप्त होती है। इसे अन्वय-व्यतिरेक शैलीमें इस तरह भी कहा जा सकता है कि जहाँ-जहाँ कार्य होगा वहाँ-वहाँ निमित्त अवश्य होंगे। जहाँ-जहाँ निमित्त नहीं होंगे, वहाँ-वहाँ कार्य निष्पन्न नहीं होगा। इस विषयको समझनेके लिये समयसारकी गाथा ३०१, ३०२ तथा उनका कलश-श्लोक अत्यन्त उपयोगी होंगे । इन गाथाओं और कलश श्लोकोंका आशय संक्षेपमें इस प्रकार है जिस प्रकार शुद्ध (स्वत- सिद्ध निज निर्मल स्वभावका धारक) स्फटिकमणि परिणमनस्वभाववाला होते हए भी स्वयं (अपने आप अर्थात् निमित्तभूत परवस्तुके सहयोगके बिना) रक्तादिरूपताको प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार शुद्ध (स्वतःसिद्ध निजज्ञान स्वभावका धारक) आत्मा परिणमनस्वभाववाला होते हए भी स्वयं (अपने आप अर्थात् निमित्तभूत परवस्तुके सहयोगके बिना) रागादिरूपताको प्राप्त नहीं होता, किन्तु रागादि पुद्गलकर्मोका सहयोग पाकर ही वह रागादिरूप होता है । पण्डित बंशीधरजीकी यह परम्परासे समर्थित मान्यता कि निमित्त सर्वथा अकिंचित्कर नहीं होते. अपितु वे भी सार्थक होते है, आचार्य कुन्दकुन्दकी मान्यताके अधिक निकट है और वह आर्षानुमोदित है । और अपरपक्ष शास्त्रीय आधार प्रस्तुत करने में असफल रहा है। व्याकरणाचार्यजीकी इस सफल प्रस्थापनासे अपरपक्ष द्वारा उठाये गये अनेक कल्पित-विकल्प भी निरस्त हो जाते हैं। जैसे (१) प्रत्येक वस्तुमें कार्यरूप में परिणत होनेकी उतनी ही उपादानशक्तियाँ विद्यमान है, जितने कालके कालिक समय संभव हैं। (२) वस्तुके प्रत्येक परिणमनका समय निश्चित है । (३) कार्योत्पत्तिमें निमित्तोंका होना अकिंचित्कर है । निश्चय और व्यवहार निश्चय और व्यवहार-ये दो दृष्टिबिन्दु एवं अपेक्षायें है। किन्तु दोनों विद्वानोंमें इनके सम्बन्ध मत-भिन्नता है। एक पक्ष निश्चयको परमार्थसत्य और व्यवहारको उपचरित कहकर उसकी अवहेलनापर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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