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________________ 2/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व : 63 पण्डितजीके कारण बुन्देलखण्डका अत्यन्त लघु नगर "बीना" भारतकी विद्वत्ताके मानचित्रमें सुखियोंभरा स्थान पा गया / समाजमें जब भी शास्त्रार्थ होता या कोई समस्या उठ खड़ी होती, सभीका ध्यान बीनानगरके उस एकान्त साधककी ओर चला जाता और निश्चय ही बहाँसे उसका समाधान निकल आता। इन पंक्तियोंका लेखक तो पपौराजी विद्यालयके अध्ययनकाल (सन् 1938) से ही उनका नाम सुनता चला आ रहा था / संयोगसे मेरे आद्य विद्या-गुरु श्री पण्डित डॉ० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्यके सौजन्यसे वे पपौराजीके एक नैमित्तिक अधिवेशन में पधारे। अत्यन्त साधारण, किन्तु शुद्ध खद्दरधारी पण्डित बंशीधरजीको अपने बीच पाकर हम लोग कृतकृत्य थे। हमारी छात्रसभामें भी उनका उद्घोधक भाषण हुआ। शब्दावली तो मुझे स्मरण नहीं, किन्तु उसका सारांश यही था कि "जिनवाणी एवं जैन समाजके उद्धारका भार नवीन पीढ़ी पर है। इसके साथ ही राष्ट्र के निर्माणको जिम्मेवारी भी उन्हीं पर है। अतः छात्रोंको अपने अध्ययनके साथ-साथ स्वस्थ रहकर समाज एवं राष्ट्रकी सभी समस्याजोंको समझकर अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार उनके उद्धार एवं निर्माणको दिशामें भी कार्य करने की योग्यता हासिल करना चाहिए।" सन् 1957 के आसपास मैंने डॉ० हीरालालजी एवं डॉ० ए० एन० उपाध्येके आदेशसे हस्तलिखित अप्रकाशित ग्रन्थोंपर शोधकार्य प्रारम्भ किया था। उस प्रसंगमें मैं महाकवि रइधकी पाण्डुलिपियोंकी खोजमें राजस्थान एवं गुजरातके बाद बीना पहुंचा था। वहीं मेरी उनसे प्रथम साक्षात् भेंट थी। मैंने उसी समय परखा कि नवीन उन्ननीषु पीढ़ीके प्रति वे कितने सहृदय, एवं सहयोगी-प्रवृत्तिके सज्जनोत्तम व्यक्ति हैं / भले ही वहाँके शास्त्र-भण्डारमें मुझे रइधूकी कोई भी प्रति नहीं मिली, किन्तु उसकी खोजसे लेकर आतिथ्य तककी उनकी स्नेह-छाया मुझे अवश्य मिली। जैन समाजमें कर्म-सिद्धान्तके ज्ञाता दो विद्वान् सर्वविदित हैं-सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री एवं सिद्धान्ताचार्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य / दोनों ही शुद्ध खद्दरधारी, दोनों ही पक्के गाँधीवादी, दोनों ही जैन-सिद्धान्तके मर्मज्ञ, अभूतपूर्व प्रतिभाके धनी, दोनों ही मनस्वी एवं बेजोड़ स्वाभिमानी और दोनों ही राष्ट्रकी सेवामें समर्पित और स्वतन्त्रता-प्राप्तिके आन्दोलनकारी होनेके कारण जेलकी यातनाओंके भोगी। दोनोंकी इतनी प्रगाढ़ मैत्री कि पूज्य पं० फछचन्द्रजो कहा करते थे कि हम दोनोंकी विचार-धारामें इतना मतैक्य है कि किसी भी प्रश्नके उत्तरमें भाषामें भले ही हीनाधिक अन्तर आ जाय, किन्तु विचारोंमें कभी भी अन्तर नहीं आ सकता / दार्शनिक-मान्यताको लेकर सम्भवतः यही स्थिति आगे नहीं चल सकी / 'जयपुर इसकी स्पष्ट झलक मिलती है। किन्तु मतभेद रहते हुए भी मनभेदकी स्थितिको वे दोनों ही पसन्द नहीं करते / यही उनकी महानता एवं बड़प्पन है / पण्डितजीका जीवन एक खुली पुस्तकके समान है। वे व्यापारी अवश्य हैं किन्तु अणुव्रतोंके नियमोंके प्रतिपालक भी हैं / यह आश्चर्यका विषय है कि व्यापार करते हुए भी जैन-दर्शनके गहन रहस्योंका उद्घाटन वे कैसे कर पाते हैं ? किन्तु निरपेक्षवृत्तिसे व्यापारमें लगे हुए पण्डितजी उसे आश्चर्य नहीं मानते, क्योंकि वे उस पथके पथिक हैं, जिसे भारतके सुप्रसिद्ध जौहरी एवं चिन्तक रायचन्द्र भाई (महात्मा गाँधीके गुरु) जैसोंने भी अनुसृत किया है। बुन्देलभूमि प्रारम्भसे हो साधक विद्वानोंको खानि रही है। उसकी प्रथम पंक्तिके विद्वानोंमें पण्डित बंशीधरजीका नाम चिरकाल तक प्रेरणाका अजस्र-स्रोत बना रहेगा। उन्हें हमारा शतशः नमन हैं / वे शतायुः हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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