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________________ गोलापूर्वान्वय : एक परिशीलन • डॉ. कस्तूरचन्द्र 'सुमन', एम० ए०, पी-एच० डी०, श्रीमहावीरजी मान्यवर पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री वाराणसीने 'न्यायाचार्य डॉ० दरबारीलाल कोठिया अभिनन्दन-ग्रन्थ' में सन् १९८२ में 'गोलापूर्व अन्वयके आलोकमें' शीर्षक शुभकामना-लेखमें गोलापूर्व अन्वयके विषयमें अनुसन्धानात्मक महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है तथा आदरणीय डॉ० कोठियाजीकी ओर लक्ष्य करके लिखा है कि 'कुछ समय पहले श्री डॉ० दरबारीलालजीसे भेंट होनेपर इस दिशामें काम करनेका मैंने संकेत किया था। इस ओर तत्काल उनका ध्यान भले ही न गया हो, यह विषय ऐसा है कि दृष्टि-सम्पन्न कतिपय सेवाभावी बन्धु यदि इस दिशामें प्रयत्नशील हों तो ऐतिहासिक दृष्टिसे अतिउपयोगी एक कमोकी पूर्ति हो सकती है।' उल्लिखित अभिनन्दन-ग्रन्थमें जब मैंने पण्डितजीका उक्त शुभकामना-लेख पढ़ा और कोठियाजीने मझे इस दिशामें कूछ लिखनेकी प्रेरणा की, तो मेरी उक्त विषयमें अध्ययन करनेकी उत्सुकता बढ़ी, मैंने अपनी पी० एच० डी० के लिए मध्यप्रदेशके जैन पुरातत्त्वपर काम किया था, इसलिए भी इस लेखको साहित हआ। अध्ययन करनेपर जो जानकारी एकत्रित कर सका। प्रसंग पाकर उसे यहाँ दे रहा हूँ । इतिहास ऐसा विषय है, जिसमें अनुसन्धानकी अपेक्षा बनी रहती है। गोलापूर्वान्वय : 'गोलापूर्वान्वय' में गोलापूर्व और अन्वय ये दो शब्द हैं । इनमें 'अन्वय' शब्दके अनेक अर्थ हैं । अभिलेखोंमें इस शब्दका बहुत प्रयोग हुआ है । यह शब्द प्रायः दो अर्थोंमें व्यवहृत हुआ है-(१) आचार्य परंपराको दर्शानेके लिए और (२) जैन उपजातियोंके नामोंके निर्देश करनेके लिए । जहाँ आचार्य परम्पराको बताना इष्ट रहा है वहाँ 'अन्वय'का पूर्ववर्ती पद किसी-न-किसी आचार्यके नामसे युक्त मिलता है । यथा-कुन्दकुन्दायन्वय, भद्रान्वय,२ देशनन्दिगुरुवयंवरान्वय' आदि । इनमें क्रमशः आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य भद्र और देशनन्दि गुरुओंके नाम पूर्वपदमें आये हैं । अभिलेखोंमें इसका उपयोग स्वयंको ऐसे अन्वयोंका अनुगामी बताने के लिए किया गया है। अन्वयका दसरा व्यवहार कूल और जातिके लिए हआ है। इस अर्थ में अन्वयका पूर्वपद कोई ऐसा शब्द होता है, जिसका चौरासी जैन उपजातियोंमें किसी-न-किसी जैन उपजातिसे सम्बन्ध रहता है । जैसे अहारके मूर्तिलेखोंमें खडिल्लवालान्वय, जैसवालान्वय, पौरपाटान्वय, गोलाराडान्वय आदि मिलते हैं । यहाँ खन्डेलवाल आदि जैन उपजातियोंके अर्थ में 'अन्वय' शब्द व्यवहृत हुआ है। आचार्य जिनसेनने पिताके अन्वयको शुद्धिको कुल और माताके अन्वयकी शुद्धिको जाति संज्ञा दी है। आचार्य कुन्दकुन्दने भी देश, जाति और कुलको शुद्धिपर बल दिया है और उनसे युक्त आचार्यको नमन किया है ।" उनकी दृष्टि में शुद्धि (गुण) विहीन जाति और कुल बन्ध नहीं है । आचार्य समन्तभद्रने जाति और कुलकी शुद्धिको गौरवका विषय मानते हए भी उनके अभिमानको मदोंमें परिगणित किया है और आठ मदोंमें कुल और जातिके मदोंका भी उल्लेख किया है । इससे यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि कुल और जाति दोनों प्राचीन रहे हैं । भले ही उनमें परिवर्तन होता रहा हो । और ऐसा समयानुसार सम्भव भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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