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________________ आत्म-कथ्य सम्माननीय पं० बंशीधर जी व्याकरणाचार्य समाजके एक ऐसे मनीषी विद्वान् है, जिनकी प्रवृत्तियाँ चतुर्मुखी है । वे स्वतन्त्रता सेनानी हैं, जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी द्वारा उद्घोषित ९ अगस्त, १९४२ के 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें सक्रिय लिप्त रहे और ९, १० माह सागर, नागपुर और अमरावतीकी जेलोंमें रहे। समाज सेवामें भी व्याकरणाचार्य जी पीछे नहीं रहे। दस्सा-पूजाधिकार जैसे आन्दोलनोंमें आगे होकर कार्य किया। स्थानीय संस्था, विद्वत्परिषद और श्री गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला आदि संस्थाओंके माध्यमसे मंत्री एवं अध्यक्ष पद पर रहकर दीर्घकाल तक आपने समाजकी सेवा करके सेवाका एक मानदण्ड स्थापित किया है। सबसे बड़ी उनकी सेवा है साहित्य-साधना । उन्होंने जब अनुभव किया कि आगम-वाक्योंका अन्यथा अर्थ किया जा रहा है और उन्हें तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है तब उन्होंने विद्वद्गोष्ठीका आह्वान किया तथा युक्ति और आगम पुरस्सर चर्चा की । इतना ही नहीं, जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा, जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारक व्यवस्था, जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार, खानिया (जयपुर) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा प्रभृति ग्रन्थ लिखकर आगमपक्षको पुष्ट एवं स्पष्ट किया । आज भी वे उसी साहित्य-साधनामें निरंतर संलग्न हैं । यद्यपि वे आरम्भसे स्वतन्त्र वस्त्रव्यवसायी हैं। किन्तु अब उसे पुत्रोंको सौंपकर एकमात्र जिनवाणीकी सेवा-साधनामें लगे रहते हैं। १७ फरवरी १९८९ को श्री दि० जैन क्षेत्र कुण्डलगिरि (कुण्डलपुर, दमोह) में भा० दि० जैन विद्वत्परिषदका नैमित्तिक अधिवेशन विद्वद्वर पं० भंवरलाल जी न्यायतीर्थ, जयपुरकी अध्यक्षतामें आयोजित था। अधिवेशनकी समाप्ति पर कुछ विद्वानों में चर्चा हो रही थी कि माननीय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यको अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया जाना चाहिए। उनकी विद्वत्ता और सेवायें अभिनन्दित विद्वानोंसे कम नहीं हैं। वे विद्वान् थे-श्री बाबूलालजी फागुल्ल शास्त्री, वाराणसी, डॉ० कस्तूरचन्द्रजी कासलीवाल, जयपुर और डॉ० भागचन्द्र जी 'भागेन्दु' दमोह । मैं भी वहाँ आ गया था। फागुल्लजी तथा कासलीवालजी तो बोले कि "हम पूरा सहयोग देंगे।" मैंने कहा कि "बहुत अच्छा है, अवश्य होना चाहिए"! यह चर्चा आगे बढ़ी और फागुल्लजी ने एक रूपरेखा भी बनाकर मेरे पास भेज दी। मैं उस समय श्रीमहावीरजीमें था। वहाँ दो बैठकें बुलाई। १७ मई १९८९ को हुई बैठकमें निम्न निर्णय लिए गये :-सिद्धान्ताचार्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ समिति का गठन तथा समितिमें निम्न पद रखे गये। १:१-परम संरक्षक, २-संरक्षक, ३-अध्यक्ष, ४-उपाध्यक्ष, ५-महामंत्री और ६-सदस्य । २:-सम्पादक मण्डलका गठन, जिसमें १-डॉ० पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, २-डॉ० कस्तूरचंद्र कासलीवाल, ३-५० बलभद्र न्यायतीर्थ, दिल्ली, ४-डॉ० भागचन्द्र 'भागेन्दु', दमोह, ५-श्री नीरज जैन, सतना, ६-डॉ० राजाराम जैन, आरा, ७-डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी, ८-डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी, वाराणसी, ९-डॉ० शीतलचन्द्र जैन, जयपुर और १०-मैं (प्रधान सम्पादक)। जब अभिनन्दन-ग्रन्थके नामकी चर्चा आयी तो पर्याप्त विचार-विमर्शके पश्चात् उसका नाम “सरस्वतीके वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ" रखनेका निर्णय लिया। प्रस्तुत ग्रन्थपर एक फोल्डर निकालनेका भी अधिकार प्रधान सम्पादक जीको दिया गया। ३ :-ग्रन्थमें सामान्यतः अध्यायोंके विषय-विभाजनका निर्णय भी लिया गया । ४:- यह भी निर्णय लिया गया कि एक ग्रन्थ-समर्पण समितिका गठन किया जाये तथा सदस्यता शुल्क १००/०० रुपये रखा जाय और ग्रन्थमें उनके नाम दिये जायें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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