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________________ 'सत्य क्या है?" यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर हजारों-लाखों वर्षों से विचार होता आया है। इस प्रश्न पर विचार करने वाला कौन है ? मनुष्य । मानव जाति निरंतर सत्य की खोज करती है, सत्य को जानने के लिए उत्सुक रही है। स्याद्वाद की लोकमंगल दृष्टि (जैनाचार्य श्री आनंदऋषिजी महाराज) आज भी सत्य का जिज्ञासु एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहाँ सभी प्रकार के आचार, विचार, बोली व देशवाले व्यक्तियों के आने जाने का तांता लगा हुआ है वहाँ आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से वह एक ही प्रश्न पूछता है - 'सत्य क्या है?' और हरेक आदमी अलगअलग उत्तर देता हुआ आगे बढ़ता जाता है। एक कहता है कि सत्य पूर्व में है, तो दूसरा कहता है कि नहीं, सत्य तो पश्चिम में है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति सत्य को अपनी दृष्टि से परखता है। और जिस दृष्टि से देखता है, जिस रूप में देखता है, उसे सत्य मानने लगता है। परिणामतः उसके लिए झगड़ने लग जाता है। वह कहता है - 'सत्य तो मेरे पास हैं, आओ मैं तुम्हें सत्य को दिखाता हूँ" मानो विश्व में उसके सिवाय सत्य किसीके पास है ही नहीं मानव की यह कितनी विचित्र मनोवृत्ति है कि वह जो कहता है, वही सत्य है। जो वह जानता है, वही सत्य है। वास्तव में मानव की इस मान्यता में सत्य दृष्टि नहीं, बल्कि उसका अहंकार छिपा हुआ है। किसी को धन का और किसी को प्रतिष्ठा का। परिणामतः उसने अपने अहंकार को ही सत्य का रूप दे दिया है और उसके लिए वाद-विवाद, संघर्ष करने तथा लड़ने और मरने-मारने पर भी आमादा हो जाता है। संसार में जितने भी संघर्ष, हुए हैं, युद्ध हुए हैं या हो रहे हैं, भाई-भाई में द्वेष और घृणा फैली, पिता-पुत्र में शत्रुता के भाव पैदा हुए या परिवार के परिवार उजड़ गये, तो इन सबका मूल कारण क्या है? मूल बीज बहुत छोटा-सा है जिसने विनाश के वट वृक्ष का रूप ले लिया और यह है 'जो मेरा है वही सत्य है।' जब भी इस आग्रह का भूत सिर पर सवार हुआ तो विग्रह पैदा हो गया। हजारों-लाखों मनुष्यों को विचारान्ध सत्ताधारियों ने अपने दुराग्रह, कदाग्रह पर अड़कर मौत के घाट उतार दिया इससे संत-महात्मा भी अछूते नहीं रहे और उन्हें भी शूली पर लटका दिया गया। इतिहास इसका साक्षी है। ल शांति का मार्ग संसार अपनी जलती देह को क्षीरोदक से शीतल करने के लिए बेचैन है, लेकिन तन को शीतल करने से पहले उसे मन को भी शीतल बनाना पड़ेगा और मन को शीतल करने का अमोघ उपाय दुराग्रह के त्याग में है, दूसरों को झुलसाने की क्रूरता से बचने में है, सत्य की राह पाने में है। सत्य की राह पर आए हुए व्यक्ति की श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना Jain Education International सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह किसी भी स्थिति में दुराग्रह या हठ नहीं करता है। श्री आनंदऋषिजी महाराज इसके लिए श्रमण भगवान महावीर ने एक दृष्टि दी विचार दिया कि सत्य शाश्वत है, लेकिन यह मत कहो कि मेरा ही सत्य, सत्य है। एकान्त आग्रह सत्य नहीं है और न वह सत्य का जनक है। जबतक यह दृष्टि नहीं हो जाएगी कि 'यत्सत्यं तन्मदीयम्', तब तक सत्य की खोज नहीं कर सकोगे और न सत्य के दर्शन कर पाओगे। यदि सत्य को पाना है, शांति प्राप्त करनी है और समाधिस्थ होना है, तो सर्वप्रथम सत्य को देखने का चश्मा बदलो अनाग्रह दृष्टि अपनाओ। अनाग्रह दृष्टि किसी पक्ष विशेष से आबद्ध न होने का नाम है। जब अनामह दृष्टि होगी तो सत्य स्वयं प्रतिभासित हो जाएगा, उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास, परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। इस अनाग्रह दृष्टि का नाम ही स्यादवाद अनेकान्तवाद है। यह सत्य को अनंत मानकर चलता है। फलत: जहाँ भी, जिस किसी से भी सत्य मिलता है, अनाग्रह एवं विनम्र भाव से उसे अपना लेता है। अब प्रश्न है कि भगवान महावीर ने सत्य प्राप्ति के लिए स्याद्वाद अनेकान्तवाद का संकेत क्यों किया? सामान्यतः इसका उत्तर है कि सत्य अनंत है. अतः उसकी न तो शब्दों से हो अभिव्यक्ति हो सकती है और न शब्द-प्रधान विचारों से ही वह तो एकमात्र विशुद्ध ज्ञानालोक में ही प्रतिभासित होता है फिर भी जो उस सत्य को एकांत आग्रह एवं मतान्धता से आबद्ध करते हैं, वे स्वयं अपनी भी हानि करते हैं और दूसरों को भी हानि पहुँचाते हैं। आग्रहशीलता आदि के बारे में भगवान महावीर के कथन का निष्कर्ष यह है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों की निन्दा में तत्पर हैं, ऐसा करने में ही पांडित्य समझते हैं, वे इस संसार में चक्कर लगाते रहते हैं। सर्थ सर्थ पसंसंता गरÈता परं वयं । जे उ तत्व विउस्सन्ति संसारे ते विठस्सिया । For Private & Personal Use Only सूत्रकृतांग ९/९/२/२३॥ लोकव्यवहार अनेकान्तात्मक है भगवान महावीर के ऐसा कहने का कारण यह है कि विश्व के मौलिक तत्त्वों और उनके आधार पर प्रचलित व्यवहार में एकान्त चलित चक्र संसार का कायम रहता कौन ? जयन्तसेन सरल बनो, रह तन मन से मौन ॥ www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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