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________________ किया है। जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । - तस्स सामाइयं होई, इह केवली भासियं । १क) इसी प्रकार जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में तल्लीन है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा आहार, पानी कक्ष आदि का संविभाग करना अतिथि संविभाग व्रत है। शास्त्र इस व्रत को दान के अन्तर्गत भी लेते हैं। दान अनुग्रह का परिचायक है, किन्तु संविभाग सेवा का द्योतक है। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में कहा गया है कि यथाजात रूप के धारक व्यक्ति के लिये विधिपूर्वक नवधा भक्ति के साथ आहारादि द्रव्य विशेष का स्व और पर के अनुग्रह - निमित्त अवश्य ही विभाग करें इसे अतिथि संविभाग नामक शिक्षाव्रत कहते हैं। विधिना दातृगुणवता, द्रव्यविशेषस्य जा तरपाया । स्वपरानुग्रहहेतोः, कर्तव्योऽवश्यमतिथये भागः ॥पर उद्गम आदि दोषों से रहित देशकालानुकाल, शुद्ध अन्नादिक का उचित रीति से दान देना गृहस्थों का अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत जस्स समाणिओ अप्पा, संजमें णिअमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इह केवली भासियं ॥ ९ख) इस सामायिक की साधना दुर्लभ है। कहा जाता है कि देवता लोग भी अपने हृदय में यह विचार करते हैं कि यदि एक मुहूर्त मात्र भी हमें सामायिक की सामग्री मिल जाये तो हमारा देवत्व सफल हो जाये। सामाइयसामग्गि देवावि चितंति हियय मज्झमि । जइ होइ मुहूत्तमेगें, तो अह् देवतणं सहलं ॥१० सामायिक करने वाले दो प्रकार के होते हैं : १. ऋद्धिमन्त और ऋद्धि रहित। अऋद्धिवान लोग तो मुनियों के पास जिन मन्दिर में पोषधशाला उपाश्रय स्थानक में अपने घर पर अथवा कोई भी निर्विघ्न स्थान पर सामायिक करे और जो ऋद्धिमन्त पुरुष हैं वे साडम्बर उपाश्रय आकर सामायिक करे, ताकि जिन शासन की प्रभावना भी हो। यद्यपि सामायिक समता की साधना है, किन्तु गृहस्थ जीवन में पूर्वतया समभाव होना दुष्कर है। अत: उसके लिये समय की सीमा निर्धारित कर दी गयी। एक सामायिक का काल ४८ मिनिट है। श्रावक को एकाधिक सामायिक करनी चाहिए। यदि अधिक न कर सके तो एक दिन में एक सामायिक तो अवश्यमेव करनी चाहिए। सामायिक करने के लिए प्रात:काल एवं सायंकाल विशेष उचित है। श्रावक जहां सामायिक करे, वह स्थान एकान्त, पवित्र शान्त एवं अनुकूल होना चाहिए। सामायिक या पोषध करते समय आसन, मुखवस्त्रिका, चरवला/मोरपीछी स्थापनाचार्य आदि सामग्री का सामान्यतः उपयोग होता है। सामायिक के अन्य नाम भी हैं :१. सामायिक समभाव २. सामयिक समग्र जीवों पर दयापूर्वक वर्तन। सम्यग्वाद राग-द्वेष रहित सत्य कथन। ४. समास अल्प अक्षरों में कर्म विनाशक तत्वावबोध। संक्षेप अल्प अक्षरों में गम्भीर द्वादशांगी। अनवद्य पापरहित आचरण। ७. परिज्ञा-पाप परिहार से वस्तु - बोध। ८. प्रत्याख्यान- त्याज्य वस्तुओं का त्याग। उक्त अष्ट सामायिकों पर आठ दृष्टांत भी हैं जिनके लिये द्वादश पर्व-व्याख्यानमाला आदि ग्रन्थ अवलोकनीय हैं। ५१ ११/३ अतिथि संविभाग व्रत अतिथये - विभजनम् - अतिथिसंविभाग - अतिथि के लिए अन्नाईणं सुद्धाणं कप्पणिज्जाण देसकालजुतं ।। दाणं जईणेमुचियं गिहीण सिक्खावयं भणियं ॥५३ योगशास्त्र में भी यही कहा गया है कि अतिथियों को चार प्रकार का आहार अर्थात अशन, पान खादिम स्वादिम भोजन, पात्र वस्त्र और मकान देना अतिथि-संविभाग व्रत कहलाते हैं : दानं चतुर्विधाहारपात्राच्छादनसद्मनाम् । अतिथिभ्यो तिथिसंविभागव्रतमुदीरितम् ॥ पोषधोपवास- व्रत पोष + ध = पोषध, पोष यानी गुण की दृष्टि को धारण करने वाला “पोषध" कहलाता है। अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों में द्वेष - निवृत्ति पूर्वक आहार - त्यागादि गुणों सहित निवास करना उपवास कहलाता है। पूर्वाचार्यों के अनुसार दोष से निवृत्त होकर गुणों सहित सम्यक् प्रकार से रहना - उपवास है, गुणरहित करने को पौषधोपवास कहते है : उपावृत्तस्य दोषेभ्यः सम्यग्वासो गुणै सह । उपवास: स विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् ॥१५ आहार शरीर - सुश्रुषा, गृह व्यापार एवं मैथुन इन चार बातों का पौषधोपवास व्रत में परित्याग किया जाता है। पंचास्तिकाय के अनुसार - आहारदेहसक्कार-बंभा वावार पोसहो य णं । देसे सव्वे य इम, चरमे सामाइयं णियमा ॥१५ अर्थात आहार, शरीर संस्कार अब्रह्म तथा आरम्भ त्याग ये चार बातें पौषधोपवास व्रत में आती है। इन चारों का त्याग एकदेश भी होता है और सर्वदेश भी जो सम्पूर्णत: पौषध करता है, उसे नियमत: सामायिक करनी चाहिए। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में यह विधान है कि प्रत्येक मास की दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इन चारों ही पर्यों में अपनी शक्ति न छिपाकर सावधानी पूर्वक पौषधोपवास करने वाला पौषधनियम - विधायी श्रावक कहलाता है। पर्वदिनेषु चतुर्वपि, मासे-मासे स्वशक्तिमनिबह । प्रोषधनियमाविधायी, प्रणधिपर: प्रोषधानशनः ॥५७ श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना २५ 'य' का भेद विष विषय में, विष मारे इक बार । जयन्तसेन विषय सदा, हनन को हरबार Morary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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