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________________ जैन दर्शन में विचार शुद्धि व आचार शुद्धि का बड़ा महत्व है, विचार शुद्धि के लिये आहार शुद्धि अत्यावश्यक है। जिससे तन-मन का आरोग्य सुरक्षित रहता है, आत्म साधना सुन्दर बनती है। फलतः अणाहारी पद की प्राप्ति सुलभ बनती है। सर्वज्ञ भगवान ने २२ प्रकार के अभक्ष्यों के निषेध का आदेश दिया है। वस्तुतः वह युक्तियुक्त है। जिन दोषों के कारण इन पदार्थों को अभक्ष्य कहा गया है वे निम्नानुसार हैं: १. कन्दमूलादि बहुत से पदार्थों में अनंत जीवों का नाश होता है। मांस मदिरा आदि पदार्थों में द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के असंख्य त्रस जीवोंका नाश होता है। इस प्रकार यह भोजन महा हिंसा वाला होता है, इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने इसे अभक्ष्य माना है। २. ३. ४. ५. ६. विचार शुद्धि की नींव आहार शुद्धि (आचार्य श्रीराजेन्द्रसूरिजी महाराज) (जैनाचार्य श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य) ७. ८. ९. अभक्ष्य पदार्थों के खानपानसे आत्माका स्वभाव कठोर और निष्ठुर बन जाता है। आत्मा के हितपर आघात होता है। आत्मा तामसी बनती है। हिंसक वृत्ति भड़कती है। अनंत जीवोको पीड़ा देने से अशाता वेदनीयादि अशुभ कर्मों का बंध होता है। धर्म विरुद्ध भोजन है। जीवन स्थिरता हेतु अनावश्यक है। शरीर, मन, आत्मा के स्वास्थ्य की हानि करता है। १०. जीवन में जड़ता लाता है। धर्म में रुचि उत्पन्न नहीं करता है। ११. दुर्गति की आयु के बंधका निमित्त है। १२. आत्मा के अध्यवसायको दूषित करता है। १३. काम व क्रोध की वृद्धि करता है। १४. रसवृद्धि के कारण भयंकर रोगों को उत्पन्न करता है। १५. अकाल असमाधिमय मृत्यु होती है। १६. अनंत ज्ञानी के वचनपर विश्वास समाप्त हो जाता है। इन समस्त हेतुओं को दृष्टिमें रखते हुए अभक्ष्यता को भली भाँति समझकर अभक्ष्य पदार्थों का त्याग करना उचित है। अभक्ष्य अनंतकाय आहार का सम्बन्ध जितना शरीर के साथ है ठीक उतना ही मन एवम् जीवन के साथ भी है जैसा अन्न वैसा मन और जैसा मन-वैसा ही जीवन साथ ही जैसा जीवन वैसा ही मरण (मृत्यु)। आहारशुध्दि से विचारशुद्धि और विचारशुद्धि से व्यवहारशुद्धि आती है दूषित अभक्ष्य आहार ग्रहण करने से मन और विचार दूषित होते श्रीमद जसे अभिनंदन Jain Education International हैं, साथ ही समय की मर्यादा टूट जाती है, खण्ड-खण्ड हो जाती है शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। मन विकारों का गुलाम और तामसी बन जाता है। अतः सात्विक गुणमय जीवन व्यतीत करनेके लिए एवम् अनेकाविध दोषों से बच जाने हेतु भक्ष्य-अभक्ष्य आहार के गुण-दोषों का परिशीलन करना अवश्यक है। अभक्ष्य आहार के दोष कंदमूलादि में अनंत जीवों का नाश होता है मक्खन, मदिरा, मांस, शहद और चलित रस आदि में अगणित त्रस जंतुओं का नाश होता है। फलतः उनके भक्षण से मनुष्य अत्यंत क्रूर-कठोर और घातकी होता है। मन विकारग्रस्त और तामसी बनता है। शरीर रोग का केन्द्र स्थान बन जाता है। क्रोध, काम, उन्माद की अग्नि अनायास ही भड़क उठती है। आशाता वेदनीय कर्मों का बंधन होता है। नरकगति, तिर्यंच गति, दुर्गतिमय आयुष्य का बंधन होता है, मन कलुषित बन जाता है और जीवन अनाचार का धाम। साथ ही अभक्ष्य आहार के कारण उपार्जित पाप जीव को असंख्य अनंत भवयोनि में भटकाते रहते हैं। शुद्ध- सात्विक भक्ष्य आहार इसके भक्षण से जीव अनंत जीव एवम् त्रस जंतुओं के नाश से बाल-बाल बच जाता है शरीर निरोगी सुन्दर और स्वस्थ बनता है मन निर्मल, प्रसन्न, सात्विक बनता है। फलस्वरूप जीव कोमल एवम् दयालु बनता है। सद्विचार और सदाचार का विकास होता है। सद्गति सुलभ हो जाती है। त्याग तपादि संस्कारों का बीजारोपण होता है। जीवन-मरण समाधिमय बन जाता है। उत्तरोत्तर मनशुद्धि के कारण जीवनशुद्धि और उसके कारण शुभध्यान के बलपर परमशुद्धिरूप... मोक्ष... अणाहारी पद सुलभ बन जाता है। परिणामतः पुनः पुनः अधःपतन से आत्मा की सुरक्षा, बचाव के लिए बावीस अभक्ष्यों का परित्याग करना परमावश्यक अभक्ष्य के बावीस प्रकार १ से ५ पंचुवरि (पाँच प्रकार के फल) ६ से ९ चठविगई १० हिम (बर्फ) ११ विष १२ करगेअ (ओला) १३ १४ १५ १६ १७ १८ सव्वमट्टीअ (मिट्टी) राइ भोअणगं चिय (रात्रि भोजन) बहुबीअ (बहुबीज) अनंत (अनंतकाय जमीकंद) संघाणा (अचारादि) घोलवड़ा (द्विदल) १५ For Private & Personal Use Only राग द्वेष हो चित्त में, उपजे निशदिन पाप । जयन्तसेन अनुचित यह देता नित सत्तापallelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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