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________________ ५८८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ...-.-..-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............... -.-. -. -. हाथी को वश करने के लिए जाना एवं तिलकसुन्दरी के साथ विवाह, ३. रत्नचूड़ का सपरिवार मेरु गमन एवं देश व्रत स्वीकार। पूर्वजन्म में कंचनपुर के बकूल माली ने ऋषभदेव भगवान को पुष्प चढ़ाने के फलस्वरूप गजपुर के कमलसेन नूप के पुत्र रत्नचूड़ के रूप में जन्म ग्रहण किया। युवा होने पर मन्दोन्मत्त हाथी का दमन किया किन्तु हाथी रूपधारी विद्याधर ने उसका अपहरण कर जंगल में डाल दिया। इसके बाद वह नाना देशों में घूमता हुआ अनेक अनुभव प्राप्त करता है, पाँच राजकन्याओं से विवाह करता है, अनेक ऋद्धि विद्याएँ भी सिद्ध करता है, तत्पश्चात् पत्नियों के साथ राजधानी लौटकर बहुत काल तक राज्य वैभव भोगता है। फिर धार्मिक जीवन बिताकर मोक्ष प्राप्त करता है। महावीरचरियं-नेमिचन्द्रसूरि कृत पद्यबद्ध महावीरचरियं का रचना काल वि० सं० ११४१ है। यह ग्रन्थ पाटण में दोहडि सेठ के द्वारा निर्मित स्थान में लिखा गया है । इसमें २३८५ पद्य हैं । ३००० ग्रन्थान प्रमाण है। इसका प्रारम्भ महावीर के २६वें भव पूर्व में भगवान ऋषभ के पौत्र मरीचि के पूर्वजन्म में एक धार्मिक श्रावक की कथा से होता है। उसने एक आचार्य से आत्मशोधन के लिए अहिंसाव्रत धारण कर अपना जीवन सुधारा और आयू के अन्त में भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचि नाम से हुआ। एक समय भरत चक्रवर्ती ने भगवान ऋषभ के समवशरण में आगामी महापुरुषों के सम्बन्ध में उनका जीवन परिचय सुनते हुए पूछा-भगवन् ! तीर्थकर कौन-कौन होंगे? क्या हमारे वंश में भी कोई तीर्थकर होगा? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ऋषभ ने बतलाया कि इक्ष्वाकुवंश में मरीचि अन्तिम तीर्थकर का पद प्राप्त करेगा । भगवान की इस भविष्यवाणी को अपने सम्बन्ध में सुनकर मरीचि प्रसन्नता से नाचने लगा और अहंभाव से तथा सम्यक्त्व की उपेक्षा कर तपभ्रष्ट हो मिथ्यामत का प्रचार करने लगा। इसके फलस्वरूप वह अनेक जन्मों में भटकता फिरा । महत्व-उपयुक्त पाँचों रचनाओं का सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्त्व है। इन रचनाओं में समुद्रयात्रा, नाव का ट जाना, विभिन्न द्वीपों के नाम जैसे कठाह द्वीप; मंत्र-तन्त्र, रिद्धि-सिद्धि एवं विभिन्न विद्याओं को सिद्ध करने का वर्णन मिलता है जैसे स्तम्भिनी, तालोद्घाटिनी, उड़ाकर ले जाने वाली, वैतालिक विद्या आदि; नगर, चैत्य, पर्वत, ऋतुओं के सुन्दर वर्णन इन ग्रन्थों में मिलते हैं। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं देशी शब्दों का इन ग्रन्थों के आधार पर सघन अध्ययन किया जा सकता है। इन ग्रन्थों में कथानक रूढ़ियों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग मिलते हैं। एक कथा में अनेक अवान्तर कथाओं के जाल बिछे हुए हैं जो मुख्य कथानक की पुष्टि करते हैं। भाषा, शैली एवं अलंकृत काव्यात्मक वर्णन इन ग्रन्थों की सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। ये छन्दोबद्ध एवं अलंकृत वर्णन कथा के विकास में कहीं भी बाधा पैदा नहीं करते हैं। इनमें नीति एवं उपदेशात्मक कथाएँ भी हैं। रयणचूडचरियं का इसी दृष्टिकोण से प्रस्तुत लेखक द्वारा अध्ययन व सम्पादन कार्य किया जा रहा है। इससे श्री नेमिचन्द्रसूरि (देवेन्द्रगणि) के व्यक्तित्व एवं ग्रन्थों पर नया प्रकाश पड़ सकता है। '-0 १. महावीरचरियं, सम्पादित मुनि श्री चतुरविजयजी, आत्मानन्द सभा भावनगर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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