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________________ आचार्य नेमिचन्द्रसूरि और उनके ग्रन्थ (१) आख्यानमणिकोश' - यह ग्रन्थ वास्तव में आख्यानों का कोश है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल वि० सं० ११२६ के पूर्व है । कुल ग्रन्थ ५२ गाथाओं में ही लिखा गया है । ५८७ इस ग्रन्थ में ४१ अधिकार एवं १४६ आख्यानों का निर्देश ग्रन्थकार ने किया है पर कहीं-कहीं पुनरावृत्ति भी की गयी है। इसलिए वास्तविक संख्या १२७ हो जाती है। वृत्तिकार की संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की पटुता ज्ञात होती है। आख्यानमणिकोश में चतुर्विध वर्णन अधिकार में भरत नैमित्तिक अभय के आख्यान, दान स्वरूप वर्णन अधिकार में वन्दना, मूलदेव, नागश्री ब्राह्मणी के आख्यान हैं । शील माहात्म्य वर्णन अधिकार में दमयन्ती, सीता, रोहिणी आदि के आख्यान हैं । इस प्रकार विभिन्न आयामों का वर्णन मिलता है तथा कुछ आख्यान विस्तृत रूप से इन्हीं के दूसरे ग्रन्थों में मिलते हैं जैसे बकुलाख्यान रयणचूडचरियं मिलता है । उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका - आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने इसे वि० सं० १९२९ में अणहिलपाटन नगर में पूरी की है। इस टीका में छोटी-बड़ी सभी मिलाकर लगभग १२५ प्राकृत कथाएँ वर्णित हैं। इन कथाओं में रोमांस परम्परा प्रचलित मनोरंजक वृतान्त, जीव-जन्तु कथाएँ, जैन साधु के आचार का महत्व प्रतिपादन करने वाली कथाएँ, नीति उपदेशात्मक कथाएँ एवं ऐसी कथाएँ भी गुम्फित हैं, जिनमें किसी राजकुमारी का वानरी बन जाना, किसी राजकुमार को हाथी द्वारा जंगल में भगाकर ले जाना ऐसी दोनों प्रकार कथाएँ इन्हीं की रचना रयणचूडचरियं में मिलती है । इस प्रकार विभिन्न परिषदों के उदाहरण के लिए विभिन्न कथाओं को गुम्फित किया गया है । उत्तराध्ययन की सुखबोधा वृत्ति शान्त्याचार्य विहित शिष्यहिता नामक बृहद्वृत्ति के आधार पर बनाई गयी हैं । उसके सरल एवं सुबोध होने के कारण इसका नाम सुखबोधा रखा गया है। वृत्ति का रचना स्थान अणहिलपाटन नगर (दोहडि सेठ का घर ) है । यह वृत्ति १३००० श्लोक प्रमाण है । - अनन्तनाथ चरियं — इसके रचयिता आम्रदेव के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि हैं । इस ग्रन्थ की रचना सं० १२१६ के लगभग की है । सम्भवतः यह आख्यानमणिकोश, महावीरचरियं (सं० १९४१ ) के बाद में लिखी गयी है । ग्रन्थ में १२००० गाथाएँ हैं । इसमें १४वें तीर्थंकर का चरित्र वर्णित है । ग्रन्थकार ने इससे भव्य जनों के लाभार्थ भक्ति और पूजा का माहात्म्य विशेष रूप से दिया है। इसमें पूजाष्टक उद्धृत किया गया है, जिसमें कुसुमपूजा आदि का उदाहरण देते हुए जिनपूजा को पापहरण करने वाली, कल्याण का भण्डार एवं दारिद्र्य को दूर करने वाली कहा है। इसमें पूजा प्रकाश या पूजा विधान भी दिया गया है जो संघाचारभाष्य, श्राद्धदिनकृत्य आदि से उद्धृत किया गया है। रयणचूडचरियं - यह गद्य-पद्यात्मक प्राकृत भाषा का ग्रन्थ है । नेमिचन्द्रसूरि ने गणि पद की प्राप्ति के बाद ही इसे लिखा है । इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि वि० सं० ११२६ के बाद ही उन्होंने गणि पद प्राप्त किया था उसके बाद ही इस ग्रन्थ का निर्माण किया है । इसे रत्नचूडकथा या तिलकसुन्दरी रत्नचूड़ कथानक भी कहते हैं। यह एक लोक कथा है जिसका सम्बन्ध देवपूजादि फल प्रतिपादन के साथ जोड़ा गया है। कथा तीन भागों में विभक्त है - १. रत्नचूड़ का पूर्वभव, २. जन्म, Jain Education International १. ( अ ) प्राकृत साहित्य का इतिहास, डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी, पृ० ४४५, PEST to (ब) जैन साहित्य का इतिहास भाग-२, डॉ० मोहनलाल मेहता, पी० बी० शोध संस्थान, वाराणसी, १६६६, पृ० ४४७-४८. २. जिनरत्न कोश, पृ० ३५८ ३. रयणचूडचरियं – सम्पादक विजयकुमुदसूरि, श्री तपागच्छ जैन संघ, खंभात १९४२ ई० में प्रकाशित । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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