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________________ ५६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-. -.-.-.-. -. ... ... . ................................. ओ मल-मूत्र तणो भण्डार, कूड कपट तणी कोथली। इणमें सार नहीं छै लिगार, तो हूं किण विध पामू इण सूरली ।। अणेक मिले अपछरा आण, रूप करे रलियामणो। त्याने पिण जाणूं जहर समान, म्हारे मुगत नगर में जावणो । स्व-प्रवेशी साधक के लिए यही चिन्तन उपादेय है। सुदर्शन एक मुमुक्षु साधक था। भौतिक और क्षणिक विकारों से उसका हृदय निलिप्त था। विषयासक्ति मिट चुकी थी। मुक्ति का परम पद प्राप्त करने की तीव्र उत्कंठा उसके दिल में परिव्याप्त थी। विकृति के साथ क्रय-विक्रय का प्रपंच उसने नहीं सीखा। इसलिए वह एक धीर, वीर और गम्भीर साधक की श्रेणी में अवस्थित था । कालिदास ने भी कहा है विकारहेतौ भुवि विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः। सुदर्शन का यह चिन्तन उसकी साधना के अनुकूल ही था । उसके स्थान पर यदि दूसरा व्यक्ति होता तो शायद अपना सत्त्व कायम रख सकता या नहीं । किन्तु सुदर्शन इस कड़ी परीक्षा में पूर्णत: उत्तीर्ण हुआ, यह असन्दिग्ध है। संस्कृत कवियों ने अपनी भाषा में कहा है-विनाशकाले विपरीत बुद्धिः । जब मनुष्य का विनाश निकट आता है तब उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । सियार की मौत नजदीक आने पर वह गाँव की तरफ दौड़ता है। रानी अपनी समस्त श्रृंगार चेष्टाएँ करके सब हार चुकी तब कुपित होकर भय प्रदशित करती है पुरुष सुकोमल हुवै छै हियारो, पिण तूं तो कठण कठोरो। म्हारा वचन सुणीने तूं न प्रजलियो, तूं तो दीसे निपट निठोरो॥ प्रगलायो भाटो पिण पगले, पिण तूं न प्रगले प्रगलायो । लोक भेलो कहै छै तोने, पिण म्हारे तो मन नहीं भायो । थोड़ी सी समझ तो आण हिया में. कहो म्हारो मानों। नहीं तो खुराबी करतूं भारी, कर देसू जावक हैरानों॥ हूं बलि-बलि वचन कहूं छू तोने, तूं नहीं माने छै मूली। बांका दिन आया दीसे थारा, तोने तुरत दिरातूं सूली ॥ तूं बोलायो पिण मूल न बोल थे मुंहढो राख्यो छै भीचो। अजेस को मान हमारो, नहीं तो मराऊँ तोनें कुमीचो॥ बार-बार कहूं छू सेठ तोनें, म्हासू कर मनमानी प्रीतो। नहीं तो कूडोई आलदेसू तो माथे, करसूं लोकां में फजीतो॥ रानी द्वारा मौत का भय दिखाने पर भी सुदर्शन अडिग रहा। उसे जीवन का मोह और मृत्यु का भय नहीं था। स्वीकृत नियम और व्रत का पालन ही उसके लिए अभीष्ट था। रानी का अनुनय और भय दोनों ही सुदर्शन को शुभ करणी से डिगा नहीं सके। उसकी मौन और उदासीन वृत्ति रानी को असह्य थी। ब्याज की आशा में मूलधन ही लुट चुका था । रानी की गति सांप-छुछून्दर की तरह हो गई। उसने नहीं सोचा था कि उसे अपने कृत्य का यों पश्चात्ताप करना पड़ेगा। चारों ओर से निराश होकर वह मन में सोचती है लेणा सूं देणे पड़ी, बले उल्टी खोई लाज। लेने के देने पड़ गए। चौबेजी छब्बेजी की आशा में दुब्बेजी ही रह गए। सारी लोक लज्जा नष्ट हो गई। यदि राजा को इस बात का पता लग जाएगा तब मुझे जीवित ही नहीं छोड़ेंगे। न जाने किस पाप का यह प्रायश्चित्त मुझे करना पड़ रहा है। किन्तु खेद ! मानव का यह कितना बड़ा मनोदौर्बल्य है कि वह अपनी गलती को जानकर भी उसका परिष्कार नहीं करता । लोकापवाद से बचने के लिए वह सच्चे पर भी झूठा अभ्याख्यान लगाने को तत्पर रहता है। रानी ने भविष्य की चिन्ता न करते हुए अपने दोष को ढंकने के लिए आखिर सुदर्शन पर झूठा कलंक मढ़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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