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________________ राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित की छाया में अधिकांशतः अव्यवस्था होती ही है ? दीपक तिमिराच्छन्न सृष्टि को आलोकित करता है, किन्तु उसके - स्वयं के नीचे अँधेरा पलता है। संस्कृतज्ञों की भाषा में चित्रं किं महतां तले क्षितितले प्रायो व्यवस्थाधिका दीपे प्रज्वलितेप्यधोऽत्र तिमिरं स्यान्नव्यता कापि नो || ५६५ धाय मन ही मन विचार करती है कि इस राज्य में किसी बड़े अनिष्ट की सम्भावना लगती है, तभी तो रानी अपने धर्म को छोड़ने के लिए उद्यत है। ऐसा लगता है कि मानो पूर्व जन्मोपार्जित पाप उदय में आये हों । सर्वत्र सुख ही सुख में एकाएक दु:ख उत्पन्न हो गया। इसके निवारण के लिए मैं कर भी क्या सकती हूँ? मेरे लिए हाथ मलने और सिर घुनने के अतिरिक्त और है ही क्या ? इसीलिए तो विद्वानों ने कहा है कार्ये नो महतां ब्रवीति मनुजः क्षुद्रो न शक्तोऽपि सः । मार्जारस्य च मासुरीं किमु कदा सूच्यास्य उत्पाटयेत् ॥ बड़ों के काम में क्षुद्र मनुष्य कुछ नहीं बोलता । वह बोले भी कैसे ? क्योंकि वह समर्थ भी नहीं है । क्या चहा कभी अपनी इच्छा होने पर भी बिल्ली की मूँछ उखाड़ सकता है। बेचारी धाय मन ही मन पछता कर रह जाती है । वह कुछ कर नहीं सकती। उसे न चाहने पर भी रानी की इच्छा पूर्ति के लिए तत्पर होना पड़ता है । सच है दासता मानव सृष्टि का एक बहुत बड़ा अभिशाप है। पण्डिता धाप और अभया रानी का यह पारस्परिक संवाद सुदर्शन चरित का महत्वपूर्ण भाव चित्रण है, जिसमें आचार्य भिक्षु के उद्भट कवित्व की अमर रसधारा से सुन्दर निखार आ गया है। वस्तु निरूपण - आचार्य भिक्षु परम साधक थे। बिना किसी पक्ष और स्पर्धा के उनकी चिन्तन-धारा वस्तु-सत्य के अन्वेषण में ही बही। वास्तविकता का यथार्थ निरूपण ही उनका परम लक्ष्य था । यही कारण है कि उनका काव्य विभिन्न उक्तियों, अलंकारों व दृष्टान्तों को अपने में संजोए समान गति से आगे बड़ा है। पण्डिता धाय Jain Education International रानी के हठ से लाचार जब सुदर्शन को जैसे-तैसे महलों में पहुँचाने के उपक्रम में उसके आस-पास अवसर की ताक में चक्कर लगाती है तो उसका भी बहुत ही यथार्थ चित्र आचार्य भिक्षु की शब्द तूलिका के द्वारा चित्रित हुआ है ज्यू दूध देखी मंजारिका, फिर छँ उंली-सोली । ज्यू सेठ सुदर्शन अपरे धाय आय फिरे हे दोली ॥ बिल्ली की यह उपमा कितनी यथार्थ है ? इसका सहज ही अन्दाज लगाया जा सकता है। धाय विविध छलप्रयत्नों से सुदर्शन को महल में ले आती है, किन्तु बलपूर्वक किसी के हृदय को नहीं जीता जा सकता । सुदर्शन को महल में लाने में तो धाय जैसे-तैसे सफल हो गई किन्तु उसे अपने व्रत से चलित करता उसके वश की बात नहीं थी । रानी द्वारा विविध प्रकार की शृंगार चेष्टाओं के बावजूद भी सुदर्शन अपने हृदय में चिन्तन करता हैहिवेसेठ करे रे विचार, ए कांई होय जासी कामणी । ए आपे जासी हार, एकाई करेला मांहरो भागनी || एआय बणी छँ मोय, ते कायर हुवां किम छूटिये । होणहार जिम होय, मों अडिग नै कहो किम लूटिये ॥ ए प्रत्यक्ष कामन भोग, मोने लागे धमिया आहार सारिखा । तो हूँ किमक भोग संजोग, मोने सुगत बुखारी आई पारिया ॥ जो हूँ करूँ राणी सूं प्रीत, तो हूँ क्यूँ कर्म बांधी जाऊ कुगत में। चिहुँ गत में होॐ फजीत, घणो भ्रमण करूँ इण जगत में ।। मोने मरणो छ एक बार, आगण पाछल मो भणी । मुखां दुख होसी कर्म लार, तो सेंठो रहूं न चूकूं अणी ॥ For Private & Personal Use Only -0 .0 www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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