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________________ अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य डॉ० हरिवल्लभ चुन्नीलाल भायाणी, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद (गुजरात) अपभ्रंश साहित्य में कृष्ण विषयक रचनाओं का स्वरूप इयत्ता प्रकार और महत्व कैसा था यह समझने के लिए सबसे पहले उस साहित्य से सम्बन्धित कुछ सर्वसाधारण और प्रास्ताविक तथ्यों पर लक्ष्य देना आवश्यक होगा । समय की दृष्टि से अपभ्रंश साहित्य छठवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक पनपा और बाद में भी उसका प्रवाह क्षीण होता हुआ भी चार सौ पाँच सौ वर्ष तक बहता रहा । इतने दीर्घ समयपट पर फैले की हमारी जानकारी कई कारणों से अत्यन्त त्रुटित है । हुए साहित्य पहली बात तो यह कि नवीं शताब्दी के पूर्व की एक भी अपभ्रंश कृति अब तक हमें हस्तगत नहीं हुई है । तीन सौ साल का प्रारम्भिक कालखण्ड सारा का सारा अन्धकार से आवृत सा है और बाद के समय में भी दसवीं शताब्दी तक की कृतियों में से बहुत स्वल्प संख्या उपलब्ध है । दूसरा यह कि अपभ्रंश की कई एक लाक्षणिक साहित्यिक विधाओं की ठीक उत्तरकालीन है। ऐसी पूर्वकालीन कृतियों के नाममात्र से भी हम वंचित हैं। चित्र काफी घुंधला और कई स्थलों पर तो बिल्कुल कोरा है । +0+0+0+0+8 1 तीसरा यह कि अपभ्रंश का बचा हुआ साहित्य अधिकतर धार्मिक साहित्य है और वह भी स्वल्प अपवादों के सिवा केवल जैन साहित्य है जनेतर हिन्दू एवं बौद्ध साहित्य की और शुद्ध साहित्य की केवल दो-तीन रचनाएँ मिली हैं । इस तरह प्राप्त अपभ्रंश साहित्य जैन प्राय है और इस बात का श्रेय जैनियों की ग्रन्थ- सुरक्षा की व्यवस्थित पद्धति को देना चाहिए। मगर ऐसी परिस्थिति के फलस्वरूप अपभ्रंश साहित्य का चित्र और भी खण्डित एवं एकांगी बनता है । - इस सिलसिले में एक और अधिक बात का भी निर्देश उसमें से भी बहुत छोटा अंश अब तक प्रकाशित हो सकता है। में होने से असुलभ है। Jain Education International एकाध ही कृति बची है और वह भी इससे अपभ्रंश के प्राचीन साहित्य करना होगा। जो कुछ अपभ्रंश साहित्य बच गया है। बहुत सी कृतियां भाण्डारों में हस्त प्रतियों के ही रूप इन सबके कारण अपभ्रंश साहित्य के कोई एकाध अंग या पहलू का भी वृत्तान्त तैयार करने में अनेक कठि -नाइयाँ सामने आती हैं और फलस्वरूप वह वृत्तान्त अपूर्ण एवं त्रुटक रूप में ही प्रस्तुत किया जा सकता है । यह तो हुई सर्वसाधारण अपभ्रंश साहित्य की बात । किन्तु यहाँ हमारा सीधा नाता कृष्णकाव्यों के साथ है । - अतः हम उसकी बात लेकर चलें । भारतीय साहित्य के इतिहास की दृष्टि से जो अपभ्रंश का उत्कर्षकाल है वही है कृष्णकाव्य का मध्याह्नकाल । संस्कृत एवं प्राकृत में इसी कालखण्ड में पौराणिक और काव्यसाहित्य की अनेकानेक कृष्णविषयक रचनाएँ हुई। हरिवंश विष्णुपुराण, भागवतपुराण आदि की कृष्णकथाओं ने तत्कालीन साहित्य रचनाओं के लिए एक अक्षय मूलस्रोत " का काम किया है। विषय, शैली आदि की दृष्टि से अपन साहित्य पर संस्कृत आकृत साहित्य का प्रभाव महरा एवं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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