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________________ ४७८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड . -. -. -. -. -. -. (२) मार्कण्डेय द्वारा अपने प्राकृतसर्वस्व में अन्तपुर निवासी, सुरंग खोदने वाले, कलवार, अश्वपालक, विपत्ति में नायक के अतिरिक्त भिक्षु क्षपणक आदि भी इस भाषा का प्रयोग करते हैं। लक्षणः-(१) र के स्थान पर सर्वत्र ल होता है यथा नर=नल, कर=कल (२) ष, श, व स के स्थान पर सर्वत्र श तालव्य ही होता है। जैसे—पुरुष-पुलिश, सारस शालश इत्यादि। (३) संयुक्त ष और स के स्थान पर दन्त्य सकार होता है जैसे-शुष्क= शुस्क, कष्टकस्ट, स्खलति= स्खलदि इत्यादि। (४) क्ष की जगह स्क होता है जैसे-राक्षस=लस्कस इत्यादि । (५) अकारान्त पुल्लिग शब्द प्रथमा एकवचन में ए होता है यथा-जिन=यिणे, पुरुष पुलिणे (६) अस्मत् शब्द के एकवचन व बहुवचन का रूप हो जाता है। (७) इसमें र का सर्वत्र ल हो जाता है यथा-राजा=लाजा (E) मागधी में ज, घ, और य के स्थान में य आदेश होता है। (अ) जनपद=जणवेद ज के स्थान पर य व प के स्थान पर व हुआ है। (ब) जानाति=याणादि ज के स्थान पर य व ण को त हुआ है। (E) मागधी में प्रथम, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी विभक्ति में ही अन्तर पड़ता है। ६. महाराष्ट्री प्राकृत काव्य व गीतों की भाषा को महाराष्ट्री कहा जाता है। सेतुबन्ध, गाथा सप्तशती, कुमारपालचरित ग्रन्थों में इस भाषा के उदाहरण पाये जाते हैं। गाथाओं में महाराष्ट्री प्राकृत ने इतनी प्रसिद्धि प्राप्त की कि नाटक के पद्यों में भी महाराष्ट्री बोले जाने का रिवाज सा बन गया। यही कारण था कि कालिदास से लेकर सभी नाटकों में इसका व्यवहार हो गया। डॉ० हार्नले का मत है कि महाराष्ट्री भाषा महाराष्ट्र देश में ही उत्पन्न नहीं हुई। वे मानते हैं कि महाराष्टी का अर्थ विशाल राष्ट्र की भाषा से है। इसलिए राजपूताना व मध्यप्रदेश इसी के अन्तर्गत हैं, इसीलिए महाराष्टी को मुख्य प्राकृत कहा गया है । ग्रियर्सन के मत में आधुनिक मराठी की जन्मदायिनी यही भाषा है । अत: यह बात निस्सन्देह कही जा सकती है कि महाराष्ट्री का उत्पत्ति स्थान महाराष्ट्र ही है। ___आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में महाराष्ट्री को ही प्राकृत नाम दिया है व इसकी प्रकृति संस्कृत कही है। डॉ. मनमोहन घोष इसे शौरसेनी के बाद की शाखा मानते हैं। इसी तरह चण्ड, लक्ष्मीधर, मार्कण्डेय आदि वैयाकरणों ने भी साधारण रूप से इसकी प्रकृति संस्कृति ही कही है। महाराष्ट्री प्राकृत साहित्य की दृष्टि से बहुत धनी है । हाल की गाथा सतसई, रावणवहो (प्रवरसेन), जयवल्लभ का वज्जालग्ग इसकी अमर कृतियाँ हैं। श्वेताम्बर जैनियों के भी इसमें कुछ ग्रन्थ भी लिखे गये हैं। इस पर अर्धमागधी का भी प्रभाव है। लक्षण-(१) अनेक जगह भिन्न स्वरों के स्थान में भिन्न-भिन्न स्वर होते हैं यथा समृद्धि-सामिद्धि, ईषत = ईसि, हर=हीर। (२) इसमें दो स्वरों के बीच आने वाले अल्प प्राण स्पर्श (क, त, प, ग, ढ, व, इत्यादि) प्रायः लुप्त हो गये हैं। जैसे-प्राकृत पाउअ, गच्छति =गच्छइ (३) उष्म ध्वनियाँ स व श का केवल र रह जाता है जैसे-तस्य ताह, पाषाण=पाहाण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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