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________________ राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार ४५६ आपकी कृतियाँ शिवकोश, उदयसागर कोश, श्रीलाल नाममालाकोश कोश साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इसी प्रकार व्याकरण के क्षेत्र में भी आपकी तीन कृतियों से जैन जगत आलोकित है। लघुसिद्धान्त कौमुदी, सिद्धान्तकौमुदी एवं अष्टाध्यायी के समान आपके आहेत व्याकरण, आहत लघु व्याकरण तथा आर्हत सिद्धान्त व्याकरण प्रसिद्ध है। ___काव्य की दृष्टि से शान्तिसिन्धु महाकाव्य, लोकाशाह महाकाव्य, पूज्य श्रीलाल काव्य, लवजी मुनि काव्य महत्त्वपूर्ण है। स्तोत्र जगत् में कल्याण मंगल स्तोत्र, वर्धमान स्तोत्र, नवस्मरण प्रमुख हैं। सिद्धान्त साहित्य में जैनागम तत्त्वदीपिका, तत्त्वप्रदीप, गृहस्थकल्पतरु, नागम्बर मंजरी एवं सूक्ति संग्रह का स्थान मुख्य है। (५३) आचार्य ज्ञानसागर-आपका जन्म सीकर जिलान्तर्गत राणोली ग्राम में सं० १९४८ में चतुर्भुज एवं घेवरीदेवी के घर हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त उच्च अध्ययन के लिए आप वाराणसी गये। वहाँ संस्कृत एवं जैनसिद्धान्त का अध्ययन कर शास्त्र परीक्षा उत्तीर्ण की। अविवाहित रहकर आचार्य ने अपना समग्र जीवन माँ भारती को समपित कर दिया । आपकी रचनाएँ महाकाव्य एवं चम्पू काव्य हैं। महाकाव्य की दृष्टि से वीरोदय, जयोदय एवं दयोदय एवं चम्पूकाव्य की दृष्टि से समुद्रदत्त, सुदर्शनोदय एवं भद्रोदय सर्वप्रमुख रचनाएँ हैं। वीरोदय में भगवान महावीर का जीवन-चरित वणित है। इस काव्य ने कालिदास, भारवि, माघ एवं श्रीहर्ष की स्मृति दिला दी है। 'माघे सन्ति त्रयो गुणाः' वाली कहावत चरितार्थ कर दी है। जयोदय काव्य में २८ सगों में जयकुमार एवं सुलोचना की कथा के माध्यम से अपरिग्रहव्रत का सन्देश दिया गया है। दयोदय में सामान्य व्यक्ति को नायक बनाकर महाकाव्य लिखने की जैन परम्परा का निर्वाह किया गया है। मृगसेन नामक धीवर के व्यक्तित्व को उभार कर अहिंसा व्रत का महत्त्व वणित किया गया है। समुद्रदत्त, सुदर्शनोदय एवं भद्रोदय नामक चम्पू लिखकर चम्पूसाहित्य की श्रीवृद्धि की है। आपकी हिन्दी साहित्य में भी अनेक रचनाएँ हैं जिनमें ऋषभचरित, भाग्योदय, विवेकोदय प्रमुख हैं। इनमें भी संस्कृत बहल शब्दों का प्रयोग किया गया है। (५४) कालगणि-वि० सं० १९३३ में जन्मे तेरापंथ के आठवें आचार्य कालूगणि का संस्कृत का अध्ययन बहुत विशद एवं प्रामाणिक था। यह भी कहा जा सकता है कि दो शती पूर्व प्रवर्तित तेरापंथ संप्रदाय में संस्कृत का प्रचार-प्रसार एवं रचनाओं की दृष्टि से आपका योगदान अविस्मरणीय है। राजस्थान के थली प्रदेश में भिक्षुशब्दानुशासन की रचना करवाकर व्याकरण के सरलीकरण की दिशा में प्रयास किया। इतना ही नहीं, मुनि चौथमल को निरन्तर संस्कृत साहित्य का अध्ययन एवं मनन की प्रेरणा आपसे मिलती रही। आचार्य कालूगणि को यह बात अखरती थी कि सारस्वत चन्द्रिका संक्षिप्त है, सिद्धान्त कौमुदी में वातिकों की अधिकता है, हेमशब्दानुशासन की रचना पद्धति कठोर है। अतएव गुरु की इस टीस को समझकर इस ग्रन्थ की रचना हुई। इसलिए गुरु को समर्पित इस ग्रन्थ की रचना में कालूगणि के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। (५५) आचार्य श्री तुलसी-युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी तेरापंथ धर्म संघ के नवमें आचार्य एवं अणुव्रत अनुशास्ता के रूप में सर्वत्र ख्यात हैं। नागौर जिले के लाडनूं ग्राम में वि० सं० १९७१ में जन्म लेकर आपने ११ वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की एवं अष्टमाचार्य के दिवंगत होने के पश्चात् आप वि० सं० १९९३ में तेरापंथ धर्मसंघ के नवम आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हुए। आप प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती व अंग्रेजी भाषा के ख्यात विद्वान्, कवि एवं उच्च कोटि के साहित्यकार हैं। - O Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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