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________________ . ४४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खg गई। शैली की दृष्टि से यह एक श्रेष्ठतम महारूपक ग्रन्थ है जो समस्त भारतीय भाषाओं में ही नहीं, अपितु विश्वसाहित्य में प्राचीनतम एवं मौलिक रूपक उपन्यास है। इसमें काल्पनिक पात्रों के माध्यम से धर्म के विराटस्वरूप को रूपायित किया गया है। इसे पढ़ते समय अंग्रेजी की जान बनयन कृत 'पिलग्रिम्स प्रोग्रेस' का स्मरण हो आता है। जिसमें रूपक की रीति से धर्मवृद्धि और इसमें आने वाली विघ्नबाधाओं की कथा कही गई है । आठवीं शताब्दी के अन्तिम पाद के 'ऐलाचार्य' भी प्राकृत एवं संस्कृत के विद्वान् व सिद्धान्त शास्त्रों के विशेष ज्ञाता थे । चित्रकूटपुर इनका निवास स्थान था। आचार्य वीरसेन के ये गुरु थे। १०वीं शताब्दी में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय पर संस्कृत टीका-ग्रन्थ लिखे । पुरुषार्थसिद्ध युपाय, तत्त्वार्थसार एवं समयसारकलश इनकी लोकप्रिय रचनाएँ हैं। पं० नाथूराम प्रेमी एवं डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल के अनुसार ये बयाना के पास स्थित ब्रांभपणाड-ब्रह्मबाद में आये । राजस्थान को पर्याप्त समय तक अलंकृत किया। राजस्थान के ग्रंथ भण्डारों में इनकी अनेक रचनाएँ मिलती हैं । बागड़ प्रदेश में १०वीं शताब्दी में तत्वानुशासन के रचयिता आचार्य रामसेन ने अपने ग्रंथ में अध्यात्म जैसे नीरस, कठोर एवं दुर्बोध विषय को सरल एवं सुबोध बनाया। इसी शताब्दी में आचार्य महासेन ने १४ सर्ग में प्रद्युम्नचरित को संस्कृत में निबद्ध किया। उनका सम्बन्ध लाड बागड़ से था। चित्तौड़निवासी कवि डड्ढा ने संस्कृत में ही पंच संग्रह की रचना की, जो प्राकृत पंच संग्रह की गाथाओं का अनुवाद है । इनका समय स० १०५५ है। ११-१२वीं शताब्दी में होने वाले आचार्य हेमचन्द्र संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे। इनके ग्रन्थों का राजस्थान में काफी प्रचार रहा । दोनों ही सम्प्रदायों के शास्त्र-भण्डारों में इनके ग्रंथ समान रूप से मिलते हैं । संस्कृत वाङमय के क्षेत्र में आचार्य हेमचन्द्र का विस्मयकारी योगदान है। प्रमाणमीमांसा उनकी जैनन्याय की अनूठी रचना है। त्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित प्रसिद्ध महाकाव्य है। सिद्धहेमशब्दानुशासन लोकप्रिय व्याकरणग्रंथ है।" सं० १२६२ में मांडलगढ़ निवासी आशाधर ने संस्कृत में न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार, शब्दकोश, धर्मशास्त्र और वैद्यक आदि विषयों पर अनेक ग्रंथों की रचना की। जैनेतर ग्रंथों पर भी उन्होंने टीकाएँ लिखीं। आराधनासारटीका, प्रमेयरत्नाकर, भरतेश्वराभ्युदय, ज्ञानदीपिका, गजमती विप्रलम्भ, अध्यात्म-रहत्य, अमरकोश एवं काव्यालंकार टीका, जिनसहस्रनाम, सागार एवं अनागार धर्मामृत आदि ग्रंथों के प्रणेता आशाधर संस्कृत भाषा के धुरन्धर विद्वान् थे, जिन पर जैन समाज को गर्व है। १३वीं शताब्दी में वाग्भट्ट ने मेवाड़ में छन्दोऽनुशासन एवं काव्यानुशासन की रचना की। इसी शती में सोमप्रभाचार्य ने सूक्तिमुक्तावली की रचना की। यह कृति सुभाषित सूक्त होने के साथ-साथ प्रांजल भाषा, प्रसादगुण सम्पन्न पदावली और कलात्मक कृति है। सोमप्रभाचार्य की शृंगारवैराग्यतरंगिणी भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। अजमेर की गादी के भट्टारक प्रभाचन्द्र ने १३वीं शती में राजस्थान के कई जैन मन्दिरों में मूर्तियों की १. म. विनयसागर महोपाध्याय : संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार, पृ०६० २. डा० हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १७४ ३. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल : संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार, पृ० ६५ ४. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ५. राष्ट्रीय संस्कृत शिक्षा सम्मेलन, स्मारिका १६७८, पृ० ६७ ६. राजस्थान का जैन साहित्य, पृ०६७ ७. संस्कृत साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान : डा० कासलीवाल ८. जैन साहित्य और इतिहास : नाथूराम प्रेमी ६. राजस्थान का जैन साहित्य, पृ० ६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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