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________________ ૪૬ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड इसके बाद राजा अमोघवर्ष उसे सब प्राणियों को सन्तुष्ट करने यस्याऽनंतचतुष्टयम् । अलंध्यं त्रिजगत्सारं नमस्तस्मे जिनेन्द्राय महावीराय तायिने ॥ १ ॥ संख्याज्ञानप्रदीपेन जैनेन्द्राय महत्विया । प्रकाशितं जगत्सर्व येन तं प्रणमाम्यहं ॥ २ ॥ नृपतुंग की प्रशस्ति में ६ पद्म है। राजा अमोघवर्ष के जैनदीक्षा लेने के बाद तथा नीरीति निरवग्रह करने वाला 'स्वेष्टाहितैषी' बतलाया हैप्रीणित: प्राणिसस्यौधो श्रीमताऽमोघवर्षेण येन नीतिनिरवग्रहः । स्वष्टाहितैषिणा ॥ ३ ॥ Jain Education International उसने पापरूपी शत्रुओं को अनीहित पित्तवृत्ति रूपी तपोग्नि में भस्म कर दिया था और कामक्रोधादि अन्तरंग शत्रुओं पर विजय पा लेने से 'अवन्ध्यकोप' बन गया था। सम्पूर्ण संसार को वश में करने और स्वयं किसी के वश में नहीं होने से 'अपूर्वमकरध्वज' बन गया था। राजमंडल को वश में करने के साथ तत्पश्चरण द्वारा संसारचक्र के भ्रमण को नष्ट करने वाले रत्नगर्भ (सम्यदर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय), ज्ञान और मर्यादावयवेवी द्वारा चारित्ररूपी समुद्र को पार कर लिया था 0.0 पापरूपाः परा यस्य चित्तवृत्ति हविर्भुजि । नाभिभूतः प्रभुस्तस्मादपूर्वमकरण्यजः ॥ ५ ॥ यो विक्रमक्रमाक्रांतच क्रिचक्रकृतिक्रियः । चत्रिकाकारमंजनो नाम्ना चक्रिकामंजनो जसा ॥ ६ ॥ यो विद्यानधिष्ठानो मर्यादावयवेदिकः । रत्नगर्भो यथाख्यात चारित्रजलधिर्महान् ॥ ७ ॥ इन विवरणों से अमोघवर्ष की मुनिवृत्ति का परिचय मिलता है। राजा अमोघवर्ष ने अन्तिम दिनों में विवेकपूर्वक राज्य छोड़कर जैनमुनि के रूप में जीवन बिताने का उल्लेख उसने स्वयं अपनी रत्नमाला के अन्तिम पद्य मैं किया है। गणितसार संग्रह ग्रन्थ में अमोघवर्ष नृपतुंग के शासन काल की वृद्धि की कामना की गई है— विश्वस्तकांतपक्षस्य स्याद्वाद न्यायवादिनः । देवस्य नृपतु गस्य वर्द्धतां तस्य शासनम् ॥८॥ महावीराचार्य की दो कृतियां मिलती है-गणितसारसंग्रह (समुच्चय) और शिका तथा ज्योतिष पर ज्योतिषपटल गणित और ज्योतिष का अत्यन्त पनिष्ठ सम्बन्ध है ज्योतिष के दो अंग है—एक गणित ज्योतिष और दूसरा फस ज्योतिष | अतः महावीराचार्य के गणित सम्बन्धी दोनों ग्रन्थ भी ज्योतिष के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। 1 I गणितसारसंग्रह ग्रन्थ में कहीं रचनाकाल का उल्लेख नहीं है, परन्तु उसमें नृपतुंग के शासन की वृद्धि की कामना की गई है, अतः इसकी रचना अमोषवर्ष के काल में ही हुई थी। इसमें अमोघवर्ष की जैनमुनितुल्य वृत्तियों के सम्बन्ध में बताया गया है। अतः यह कृति उसके शासनकाल के अन्तिम दिनों में लिखी गई प्रतीत होती है। इसी आधार पर इसकी रचना ८५० ई० के लगभग होने का अनुमान होता है । प्रारम्भ के 'संशाधिकार में गणित के महत्व को स्वीकार करते हुए बताया गया है-संसार के सब व्यापारों (लौकिक, वैदिक और सामाजिक) में संख्या का उपयोग किया जाता है। कामतन्य अर्थशास्त्र, गन्धर्वशास्त्र, नाटक, सूपशास्त्र, वैद्यक, वास्तुविद्या, छन्द, अलंकार, काव्य, तर्क, व्याकरण समस्त कलाओं में गणित प्राचीन काल से प्रचलित है । ( ज्योतिष के अन्तर्गत) सूर्यादि ग्रहों की गति, ग्रहण, ग्रहसंयोग, त्रिप्रश्न, चन्द्रवृत्ति, सर्वत्र गणित स्वीकार किया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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