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________________ जैन गणित : परम्परा और साहित्य 0 वैद्या सावित्रीदेवी भटनागर, २६, कानजी का हाटा, उदयपुर जैन विद्वानों की गणितशास्त्र में अभूतपूर्व देन है। प्राचीन भारतीय गणित और ज्योतिष के क्षेत्र में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण और अविस्मरणीय है। इन दोनों विद्याओं का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध होने से इनके प्राचीन ग्रन्थों में ये दोनों विषय सम्मिलित हैं। 'समवायांगसूत्र' और 'औपपातिकसूत्र' में ७२ कलाओं में गणित को भी गिना गया है। आदितीर्थकर ने अपनी पुत्री सुन्दरी को गणित की शिक्षा दी, ऐसा उल्लेख मिलता है। 'लेख' नामक 'कला' में लिपियों का ज्ञान सम्मिलित है। अठारह प्रकार की लिपियों में 'अंकलिपि' (१, २ आदि संख्यावाचक चिह्न) तथा 'गणितलिपि' (जोड़, बाकी, गुणा, भाग आदि चिह्नों का व्यवहार) का समावेश है। चार प्रकार के अनुयोगों में एक 'गणितानुयोग' है। इस अनुयोग में 'सूर्यप्रज्ञप्ति' और 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' का समावेश होता है। गणित विद्या को 'संख्यान' भी कहते हैं। 'स्थानांगसूत्र' (१०/७४७) में दस प्रकार के संख्यान (गणित) का उल्लेख है-परिकर्म, व्यवहार, रज्जू (ज्यामिति), कलासवण्ण (कलासवर्ण), जावं, तावं, वर्ग, घन, वर्गावर्ग और विकल्प । 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' (२/१) तथा 'उत्तराध्ययनसूत्र' (२५/७, ३६) में 'संख्यान' (गणित) और 'जोइस' (ज्योतिष) का चौदह प्रकार के विद्यास्थानों में उल्लेख किया गया है। महावीर ने गणित और ज्योतिष आदि विद्याओं में दक्षता प्राप्त की थी (कल्पसूत्र १/१०) । श्वेताम्बर परम्परा के आगम-साहित्य के अन्तर्गत 'सूर्यप्रज्ञप्ति' और 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' नामक दो उपांग ग्रन्थों में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारों की गति के प्रसंग में गणित का वर्णन मिलता है। . दिगम्बर परम्परा में प्राप्त धरसेनाचार्यकृत 'षट्खंडागम' की टीका में टीकाकार वीरसेनाचार्य (८१६ ई.) : ने गणित सम्बन्धी विवेचन में 'परिकर्म' का उल्लेख किया है। 'दृष्टिवाद' संज्ञक बारहवें अंग के पाँच भेदों में से एक 'परिकर्म' है। इसमें लिपिविज्ञान एवं गणित का विवेचन था। परिकर्म के पाँच भेद हैं-१. चन्द्रप्रज्ञप्ति, २. सूर्यप्रज्ञप्ति, ३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति । इनमें से प्रथम चार प्रज्ञप्तियों में गणितसूत्रों का प्रकाशन हुआ है। दिगम्बर-मत में 'अंगप्रविष्ट' (१२ अंग) और 'अंगबाह्य' आगमसाहित्य के अतिरिक्त उसकी परम्परा में जो ग्रन्थ लिखे गये, उनको चार अनुयोगों में विभाजित किया जाता है। प्रथमानुयोग में पुराणों, चरितों और कथाओं के रूप में आख्यान ग्रन्थ समाविष्ट हैं; करणानुयोग में गणित और ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ आते हैं; चरणानुयोग में मुनियों व गृहस्थों के आचरणनियमों सम्बन्धी ग्रन्थ हैं, द्रव्यानुयोग में जीव, जड़ आदि दार्शनिक चिन्तन कर्मसिद्धान्त और न्यायसम्बन्धी ग्रन्थ सम्मिलित हैं । करणानुयोग के ग्रन्थों में ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक, द्वीप, सागर, क्षेत्र, पर्वत, नदी आदि के स्वरूप और विस्तार का तथा गणित की प्रक्रियाओं के आधार पर वर्णन किया गया है। इन ग्रन्थों से गणितसूत्रों और उनके क्रमविकास को समझने में बड़ी मदद मिलती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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