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________________ -O २४६ Jain Education International कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड (३) संहिता ज्योतिष में भू-शोधन, दिशोधन, हल्योद्धार, मेलापक, आवाद्यानयन, गृहोपकरण, इष्टिकाद्वार, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, मुहूर्तगणना, उल्कापात, अतिवृष्टि, ग्रहों का उदय अस्त और ग्रहण फल का विचार होता है । मध्यकाल में 'संहिता' में होरा, गणित और शकुन का मिश्रित रूप माना जाने लगा। कुछ जैनाचार्यों ने 'आयुर्वेद' को भी संहिता में सम्मिलित किया है। ( ४ ) प्रश्न - ज्योतिष में प्रश्नाक्षर, प्रश्न लग्न और स्वरज्ञान विधियों से प्रश्नकर्ता के प्रश्न के शुभाशुभ का विचार किया जाता है। प्रश्नकर्ता के हाव, भाव, विचार, चेष्टा से भी विश्लेषण किया जाता है। इससे तत्काल फलनिर्देश होता है । यह जैन ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण अंग है । केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि, चन्द्रोन्मीलन, अयज्ञानतिलक, अर्हन्चूडामणिसार आदि इस पर प्रसिद्ध और प्राचीन जैन ग्रन्थ हैं । वराहमिहिर ( ६वीं शती) के पुत्र पृथुयशा के काल से प्रश्नलग्न सिद्धान्त का प्रचार प्रारम्भ हुआ था । (५) शकुन ज्योतिष को 'निमित्तशास्त्र' भी कहते हैं। इसमें शुभाशुभ फलों का विचार किया जाता है। पहले यह 'संहिता' में शामिल था, बाद में वीं १०वीं शती से इस पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये । ज्योतिषशास्त्र के ये पांच विभाग उसकी गम्भीर व्यापकता को सूचित करते हैं। अंग-लक्षणों के आधार पर शुभाशुभ को बताने वाला सामुद्रिक शास्त्र भी ज्योतिष का ही अंग माना जा सकता है। फलित ज्योतिष में मानव जीवन के हर पक्ष पर विचार किया गया है। यह केवल पंचांग तक ही सीमित नहीं था । ५०० ई० के बाद भारतीय ज्योतिष पर ग्रीस, अरब और फारस के ज्योतिष का प्रभाव पड़ने लगा । वराहमिहिर ने उनसे भी कुछ ग्रहण करने का उपदेश दिया है म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम् । ऋषिवत्तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनर्देवविद् द्विजः ॥ दसवीं शती के बाद ज्योतिष में यन्त्रों का प्रचलन हुआ । यन्त्रों से ग्रह-वेद - विधि का विचार किया गया । 'मुहूर्त' पर भी स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये । सब कार्यों के लिए शुभाशुभ काल का विचार किया गया । मुसलमानों के सम्पर्क से ज्योतिष के क्षेत्र में ११वीं शादी के बाद दो नवीन अंग 'ताजिक' और 'रमल' विकसित हुए । (१) ताजिक - यह अरबों से प्राप्त ज्योतिष ज्ञान है । बलभद्र ने लिखा है यवनाचार्येण पारसीकभाषायां ज्योतिषशास्त्रैकदेशरूपं वार्षिकादिनानाविधफलादेशफलकशास्त्रंताजिकशास्त्रवाच्यम् । मनुष्य के नवीन वर्ष और मास में प्रवेश करने के समय ग्रहों की स्थिति देखकर उस वर्ष या मास का फल बताना 'ताजिक' का विषय है । यह भारतीय 'जातक' के अन्तर्गत है। मूलतः यह प्रकार भारतीयों की देन भी लिखा है 1 गर्गा बनैश्चरोमकमुखः सत्यादिभिः कीर्तितम् । शास्त्रं ताजिकशास्त्र...... ********** ***It गर्ग आदि भारतीय आचार्यों ने, यवनों ने, रोमवासियों ने और सत्याचार्य आदि ने इस शास्त्र की रचना की । भारतीय ज्योतिष के आधार पर यवनों ने इसे सीखा, उन्होंने इसमें संशोधनपरिवर्धन किया। जन्मकुण्डली से फलादेश के नियम मूलतः भारतीय हैं। हरिभट्ट या हरिभद्रकृत 'ताजिकसार' में कुछ पवन शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। (२) रमल - यह शब्द अरबों का है । इमें 'पाशकविद्या' भी कहते हैं । पासों पर बिन्दु के रूप में चिह्न होते हैं । पासे फेंकने पर उन चिह्नों की स्थिति देखकर प्रश्नकर्ता के प्रश्न का उत्तर बताने की यह विद्या है। यह भारतीय 'प्रश्नशास्त्र' का ही अंग है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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