SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 743
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिमन्धन प्रस्थ : पंचम खण्ड .... . ................................................................... ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र से गभित है। विद्वानों ने इस पर ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित कई टीकाएँ लिखी हैं । मन्त्र-शास्त्र की दृष्टि से यह रचना भी अपना विशिष्ट स्थान रखती है। ज्वालामालिनी कल्प मुनिराज इन्द्रनन्दि द्वारा इस ग्रन्थ की रचना की परिसमाप्ति मान्यखेट में (वर्तमान मालखेड यह राष्ट्रकट राजाओं की राजधानी थी), शक संवत् ८६१ (ईसवी ६३६) में अक्षय तृतीया के दिन की गई।' यह मन्त्रशास्त्र का अपूर्व ग्रन्थ है । इसमें नौ परिच्छेद है। प्रथम परिच्छेद में मन्त्री लक्षण । द्वितीय परिच्छेद में दिव्यादिव्यग्रह । तृतीया परिच्छेद में सकलीकरण, ग्रहनिग्रह विधान, बीजाक्षर ज्ञान का महत्त्व, पल्लवों का वर्णन, साधारण विधि। चतुर्थ परिच्छेद में सामान्य मण्डल, सर्वतोभद्रमण्डल, अष्ट दण्डकरी देवियां, सोलह प्रतिहार, समयमण्डल, सत्य मण्डल। पंचम परिच्छेद में भूताकंपन तेल । षष्ठ परिच्छेद में सर्वरक्षायन्त्र, ग्रहरक्षक, पुत्रदायक यन्त्र, वश्य यन्त्र, मोहन वश्य यन्त्र, स्त्रीआकर्षण यन्त्र, गतिसेना क्रोध स्तम्भन यन्त्र, स्तम्भन यन्त्र, पुरुषवश्य यन्त्र, शाकिनी भयहरण यन्त्र, सर्वविघ्नहरण मन्त्र, आकर्षण, वश्य हवन । सप्तम परिच्छेद में (तन्त्राधिकार) नाना प्रकार के वशीकरण तिलक, नाना प्रकार के सुखदायक अजन, वश्यनमक व तेल, सन्तानदायक औषधि । अष्टम परिच्छेद में वसुधारा स्नान, पूजन आदि की विधि । नवम परिच्छेद में नीरांजन विधि । दशम परिच्छेद में शिष्य को विद्या देने की विधि, ज्वालामालिनी साधन-विधि १-२, ज्वालामालिनी स्तोत्र, ब्राह्मी आदि अष्ट देवियों का पूजन, जप व हवन विधि, ज्वालामालिनी माला मन्त्र, ज्वालामालिनी वश्य मन्त्र यन्त्र, चन्द्रप्रभु स्तवन, चन्द्रप्रभु यन्त्र विधि । एकीभाव स्तोत्र २६ श्लोक परिमाण यह कृति श्री वादिराज ने सन् १०२५ ईसवी में रची है। इसका प्रत्येक श्लोक ऋद्धि, मन्त्र से गर्भित माना जाता है। किन्तु स्तोत्र पर ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित टीका देखने में नहीं आती है । इस स्तोत्र को मन्त्रपूत अथवा मान्त्रिक शक्ति से युक्त माना जाता है। शिष्टसमुच्चय .. यह कृति श्री दिगम्बराचार्य दुर्गदेव द्वारा कुम्भनगर में संवत् १०८६ (१०३२ ईसवी) श्रावण शुक्ला एकादशी मूल नक्षत्र में रची गई है। डॉ. नेमीचन्द शास्त्री ने इसका सम्पादन किया है तथा गोधा जैन ग्रन्थमाला १. पं० चन्द्रशेखर शास्त्री, ज्वालामालिनीकल्प, प्रस्तावना, पृष्ठ १० धर्मध्यान दीपक, पृ० ७६, सं० पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री संवच्छरइगसहस बोलीणे णवयसीइ संजुते।। सावण सुक्के यारसि दिअइम्मि (य) मूलरिक्खंमि ॥२६०।। सिरिकुंभनयरण (य) ए सिरिलच्छि निवास निवइरज्जमि । सिरिसतिनाह भवणे मुणि भविअ सम्मउमे (ल) रम्मे ॥२६॥ पृ० १७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy