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________________ जैन मन्त्र-शास्त्रों को परम्परा भौर स्वरूप अनादि मूलमन्त्रोऽयं, सर्वविघ्नविनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मंगलं मत: ॥' जिसकी प्राचीनता अनिर्वचनीय है । द्वादशांगवाणा के बारह अंग और चौदह पूर्वो में से विद्यानुवाद पूर्व यन्त्र, मंत्र तथा तन्त्रों का सबसे बड़ा संग्रह है। उसमें ५०० महाविद्याएँ एवं ७०० विद्याएँ परम्परानुसार मौखिक रूप से चली आ रही थीं। अवसर्पिणीकाल की दृष्टि से आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जैन तन्त्र के मूल प्रवर्तक माने जाते हैं। ऋषभदेव को नागराज ने आकाशगामिनी विद्या दी थी । इसी प्रकार गन्धर्व और पन्नगों को नागराज ने ४८ हजार विद्याएँ दी थीं। उसका वर्णन वसुदेव हिण्डी के चौथे लम्भक में प्राप्त होता है। किन्तु काल-प्रभाव, उत्तम संहनन एवं कठोर तपश्चर्या के अभाव में वे काल कवलित होती गई। दूसरी शताब्दी से आचार्यों ने उन्हें लेखनीबद्ध करना प्रारम्भ किया। उस साहित्य में से जो मन्त्र साहित्य हमें उपलब्ध होता है, उसका वर्णन निम्नानुसार है। उबसग्गहर स्तोत्र पाँच श्लोक परिमाण यह कृति आचार्य भद्रबाहु ने ४५६ ईसवी पूर्व रची है। यह स्तोत्र पार्श्वनाथ की भक्ति से सम्बन्धित है । इसका प्रत्येक श्लोक मन्त्र-यन्त्र गभित है । इस पर कई विद्वानों ने यन्त्र-मन्त्र सहित टीकाएँ लिखी हैं । जैन मन्त्र साहित्य में यह रचना अपना विशिष्ट स्थान रखती है। स्वयंभूस्तोत्र १४३ श्लोक परिमाण यह कृति दिगम्बर जैनाचार्य श्री समन्तभद्र ने २री शती ईसवी में रची है। इसमें चतुर्विशति तीर्थकरों की स्तुति है। स्तुति के प्रथम श्लोक में स्वयं पद आजाने से इस चतुर्विशति स्तोत्र को स्वयंभू स्तोत्र की संज्ञा दे दी गई है । स्तुतिकारों में सबसे पहले स्तुतिकार समन्तभद्र आचार्य हुए हैं। यह स्तोत्र मन्त्रपूत अथवा मान्त्रिक शक्ति से युक्त माना जाता है। अभी तक इस स्तोत्र पर ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित कोई टीका देखने में नहीं आयी है। प्रतिष्ठा पाठ ६२६ श्लोक परिमाण यह कृति दिगम्बर जैनाचार्य जयसेन आर नाम वसुबिन्दु ने २री शती ईसवी में रची है। इसमें मन्त्रों की सुन्दर संरचना की गई है। भक्तामर स्तोत्र ४८ श्लोक परिमाण यह कृति श्री मानतुंगाचार्य ने ७वीं शती ईसवी में रची है। स्तुतिकार अपने स्तोत्र का प्रारम्भ भक्त शब्द से करते हैं-भक्तामर प्रणत मौलिमणिप्रभाणाम् । अतः इस स्तोत्र का नामकरण भक्तामर स्तोत्र हुआ। इस स्तोत्र ने अनेक साधकों को अनेक चमत्कार बताये हैं। इसका प्रत्येक श्लोक ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र से गभित है। इस स्तोत्र पर कई विद्वानों ने ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित टीकाएँ लिखी हैं। मन्त्र-शास्त्र की दृष्टि से यह कृति जनसाधारण में सर्वाधिक प्रिय एवं प्रचलित रही है। विषापहार स्त्रोत ४० श्लोक परिमाण यह कृति महाकवि धनंजय ने ७वीं शती ई० में रची है। इस स्तोत्र का प्रत्येक प्रलोक १. डॉ० नेमीचन्द शास्त्री, मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन, पृष्ठ ६३ २. भमृतलाल कालिदास दोसी, उवसग्गहर स्तोत्र, स्वाध्याय, पृष्ठ २ ३. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, धर्मध्यान दीपक, पृष्ठ ५ ४. सेठ हीराचन्द नेमचन्द दोसी, सोलापुर द्वारा १९२६ ई० में प्रकाशित ५. सं० पण्डित कमलकुमार शास्त्री, श्री कुथुसागर स्वाध्याय सदन, खुरई, मध्य प्रदेश द्वारा १९५४ ई० में प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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