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________________ .३७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .................................................... जयपुर के दीपकचन्द्र वाचक ने कल्याणदास की संस्कृत रचना 'बालतन्त्र' पर 'बालतन्त्रभाषावचनिका' नामक राजस्थानी गद्य में टीका लिखी थी। दीपकचन्द्र वाचक की संस्कृत रचना 'लंघनपथ्यनिर्णय' का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। खरतरगच्छीय जिनदत्तसूरि शाखा के लाभनिधान के शिष्य चैनसुखयति ने वैद्यक पर दो ग्रन्थ राजस्थानी में लिखे थे। प्रथम-बोपदेवकृत शतश्लोकी को राजस्थानी गद्य में 'सतश्लोकी भाषा टीका' सं० १८२० में तथा द्वितीय लोलिम्बराज के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ वैद्य जीवन पर 'वैद्यजीवनटबा' । चैनसुखयति फतेहपुर (सीकर, शेखावाटी) के निवासी थे। मलूकचन्द नामक जैन धावक ने यूनानी चिकित्साशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ तिब्ब सहाबी का भाषा में पद्यमय अनुवाद 'वैद्यहुलास' (तिब्ब सहाबीभाषा) नाम से किया था। यह बीकानेर क्षेत्र के निवासी थे। श्री अगरचन्द नाहटा ने इनका समय १९वीं शताब्दी माना है। पंजाब के किसी बहुत प्राचीन वैद्यरुग्रन्थ का मुझे उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ। सं० १८१८ में जालन्धर जिले के फगवाडानगर में मेघमुनि ने पुरानी हिन्दी के दोहे-चौपाइयों में मेषविनोद' नामक एक बहुत उपयोगी ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें चिकित्सोपयोगी सब बातों का एक साथ संग्रह है। साथ ही कतिपय नवीन रोगों का वर्णन भी किया है। महाराजा रणजीतसिंह के शासनकाल में गंगाराम नामक जैनयति ने सं० १८७८ में अमृतसर में 'गंगयतिनिदान' नामक ग्रन्थ का निर्माण किया था। इसमें ज्वर, अतिसार आदि रोगों के निदान, लक्षण आदि का सुन्दर विवेचन है। इन दोनों ग्रन्थों का हिन्दीभाषाभाष्य कर कविराज नरेन्द्रनाथ शास्त्री ने लाहौर से प्रकाशित कराया था। समीक्षा जैन परम्परा में रचित आयुर्वेद साहित्य की खोज करते हुए मुझे जिन हस्तलिखित, प्रकाशित और अप्रकाशित ग्रन्थों का परिचय प्राप्त हुआ उनमें से कुछ के सम्बन्ध में संक्षेप में ऊपर कहा गया है । इन वैद्यक ग्रन्थों में वर्णित विषय का विश्लेषण करने पर जो विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं, वे निम्न हैं १. अहिंसावादी जैनों ने शवच्छेदन प्रणाली और शल्यचिकित्सा को हिंसक-कार्य मानकर चिकित्सा क्षेत्र में उन्हें अप्रचलित कर दिया। परिणामस्वरूप शरीर सम्बन्धी ज्ञान शनैः-शनैः क्षीण होता गया और शल्यचिकित्सा छूटती गयी। २. जहाँ एक ओर जैन विद्वानों ने शल्यचिकित्सा का निषेध किया, वहां दूसरी ओर उन्होंने रसयोगों और सिद्धयोगों का बाहुल्येन उपयोग प्रारम्भ किया। एक समय ऐसा आया कि जब सब रोगों की चिकित्सा सिद्धयोगों द्वारा ही की जाने लगी, जैसा कि आजकल ऐलोपैथिक चिकित्सा में सब रोगों के लिए पेटेन्ट योग प्रयुक्त किये जा रहे हैं। नवीन सिद्धयोग और रसयोग (पारद और धातुओं से निर्मित योग) भी प्रचलित हुए। ये सिद्धयोग स्वानुभूत और प्रायोगिक प्रत्यक्षीकृत थे। ३. भारतीय वैद्यकशास्त्र की परम्पराओं के आधार पर रोग निदान के लिए नाड़ी-परीक्षा, मूत्र-परीक्षा आदि को जैन विद्वानों ने विशेष मान्यता प्रदान की, यह उनके द्वारा इन विषयों पर रचित अनेक ग्रन्थों से ज्ञात होता है। ४. जैन विद्वानों ने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के आधार पर ही मुख्य रूप से चिकित्साशास्त्र का प्रतिपादन किया है । जैसे--अहिंसा के आदर्श पर उन्होंने मद्य, मांस और मधु के प्रयोग का सर्वथा निषेध किया है, क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अनेक प्राणियों की हिंसा होती है। इस अहिंसा का आपत्काल में भी पूर्ण विचार रखा गया है । 'कल्याणकारक' में तो मांसभक्षण के निषेध की युक्तियुक्त विस्तृत विवेचना की गई है। ५. चिकित्सा में उन्होंने वनस्पति, खनिज, क्षार, लवण, रत्न, उपरत्न, आदि का विशेष उपयोग बताया है। इस प्रकार केवल वानस्पतिक और खनिज द्रव्यों से निर्मित योगों का जैन विद्वानों द्वारा चिकित्सा-कार्य में विशेष प्रचलन किया गया । यह आज भी सामान्य वैद्यजगत् में परिलक्षित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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