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________________ जैन-आयुर्वेद : परम्परा और साहित्य ३७१. था । इसमें ज्वर, स्त्रीरोग, कासक्षयादिरोग, धातुरोग, अतिसारादि रोग, कुष्ठादिरोग, शिरःकर्णाक्षिरोग के प्रतिकार तथा स्तम्भन विषयक कुल ८ अध्याय हैं । मेघभट्ट ने सं० १७२६ में इस पर संस्कृत टीका लिखी थी। खरतरगच्छीय जिनचन्द की परम्परा में वाचक सुमतिमेरु के भ्रात पाठक विनयमेरुगणि ने १८वीं शती में 'विद्वन्मुखमण्डनसारसंग्रह' नामक योगसंग्रह ग्रन्थ लिखा था। इसमें रोगों की चिकित्सा दी गई है। इनके शिष्य मुनि मानजी के राजस्थानी में लिखे हुए 'कविप्रमोद', 'कविविनोद' आदि वैद्यकग्रन्थ मिलते हैं। यह बीकानेर क्षेत्र के निवासी थे। बीकानेर के निवासी और धर्मशील के शिष्य रामलाल महोपाध्याय ने 'रामनिदानम्' या 'रामऋद्धिसार' नामक छोटे से ग्रन्थ की संस्कृत में रचना की थी। इसमें संक्षेप में सब रोगों के निदान का वर्णन है। इसकी कुल श्लोक संख्या ७१२ है। खरतरगच्छीय मुनि दयातिलक के शिप्य दीपकचन्द्र वाचक ने जयपुर में महाराजा जयसिंह के शासनकाल में 'लंघनपथ्यनिर्णय' नामक पथ्यापथ्य सम्बन्धी ग्रन्थ की रचना की थी। इसका रचनाकाल सं० १७६२ है। बाद में इस ग्रन्थ का संशोधन शंकर नामक ब्राह्मण ने संवत् १८८५ में किया था। संस्कृत में रचित उपर्युक्त वैद्यक ग्रन्थों के अतिरिक्त राजस्थानी भाषा में भी जैन विद्वानों ने कई वैद्यक ग्रन्थ रचे थे। खरतरगच्छीय यति रामचन्द्र ने वैद्यक सम्बन्धी 'रामविनोद' (रचनाकाल सं० १७२०) तथा 'वैद्यविनोद' (रचनाकाल सं० १७२६) नामक ग्रन्थों की रचना की थी। यह औरंगजेब के शासनकाल में मौजूद थे। ये दोनों ग्रन्थ चिकित्सा पर हैं। 'वैद्यविनोद' ग्रन्थ शाजधरसंहिता का पद्यमय भाषानुवाद है । इनके 'नाडीपरीक्षा' और 'मानपरिमाण' नामक ग्रन्थ भी मिलते हैं, जो वास्तव में 'रामविनोद' के ही अंश हैं। श्वेताम्बरी बेगड़ गच्छ के आचार्य जिनसमुद्रसूरि ने 'वैद्यचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ १७वीं शती में लिखा था। इस ग्रन्थ के अन्य नाम 'वैद्यकसारोद्धार,' 'समुद्रसिद्धान्त' और 'समुद्रप्रकाशसिद्धान्त' भी मिलते हैं। इसमें रोगों के निदान और चिकित्सा का पद्यों में संग्रह है। बीकानेर के खरतरगच्छीय धर्मसी या धर्मवर्द्धन की 'डंभक्रिया' नामक २१ पद्यों में छोटी सी रचना मिलती है। इसका रचनाकाल सं० १७४० दिया गया है। इसमें विभिन्न रोगों में अग्निकर्म-चिकित्सा का वर्णन है। खरतरगच्छीय शाखा के उपाध्याय लक्ष्मीकीर्ति के शिष्य लक्ष्मीवल्लभ ने शम्भुनाथकृत संस्कृत के 'कालज्ञानम्' का संवत् १४७१ में पद्यमय भाषानुवाद किया था। इनकी दूसरी कृति 'मूत्रपरीक्षा' नामक है जो अतिसंक्षिप्त, केवल ३७ पद्यों में मिलती है। इसका रचनाकाल सं० १७५१ है । लक्ष्मीवल्लभ बीकानेर के रहने वाले थे। विनयमेरुगणि के शिष्य मुनिमान की राजस्थानी पद्यों में लिखित दो वैद्यक रचनाएँ मिलती हैं----'कविविनोद' और 'कविप्रमोद ।' 'कवि विनोद' में रोगों के निदान और औषधि का वर्णन है। इसमें दो खण्ड हैं-प्रथम में कल्पनाएँ हैं और दूसरे में चिकित्सा दी गई है । इसका रचनाकाल सं० १७४५ है । 'कविप्रमोद' बहुत बड़ी कृति है। इसका रचनाकाल सं० १७४६ है । यह कवित्त और दोहा छन्दों में है । इसमें वाग्भट, सुश्रुत, चरक आदि ग्रन्थों का सार संकलित है। बीकानेर के निवासी तथा महाराज अनूपसिंह के राज्याथित व सम्मानित श्वेताम्बर जैन जोसीराम मथेन के पुत्र जोगीदास (अन्य नाम 'दासकवि') ने महाराजकुंवर जोरावरसिंह की आज्ञा से सं० १७६२ में 'वैद्यकसार' नामक चिकित्साग्रन्थ की रचना की थी। श्वेताम्बर खरतरगच्छीय मतिरत्न के शिप्य समरथ ने सं० १७५५ के लगभग शालिनाथ (वैद्यनाथ के पुत्र) द्वारा प्रणीत संस्कृत 'रसमंजरी' नामक रस ग्रन्थ पर पद्यमय भापाटीका लिखी थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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