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________________ स्वानुभूति की ओर : अन्तर्यात्रा ३२७ वस्तुत: हमारी सारी चिन्तना, गति, प्रवृत्ति, हर समय, रात और दिन, प्रत्येक घड़ी और पल, सोते-जागते, उठते-बैठते, इसी प्रकार की बन जाय कि जो हम दिख रहे हैं, और कह रहे हैं, वह अपना नहीं है और जो अपनापन अन्तनिहित है, वो हमारे इन सारे बाह्य कार्यों से प्रभावित न हो, उसकी जड़ता हमारे चेतना को आच्छादित या मलीन न कर दे, महात्मा कबीर के शब्दों में हमारी आत्मा की झीनी चद्दर मली न हो जाय और स्वच्छ रहे पर इस चिन्तना के लिये यह आवश्यक है कि हम अपने मन, वचन एवं शरीर की सारी गतिविधियों को एक समतल पर समस्वर में रखें । जो हम सोचें, वैसा ही करें और जैसा कहें वैसा ही करें, और तभी हमारा द्वैतभाव दूर हो सकेगा और हमको अपनी जानकारी प्राप्त करने में सुगमता रहेगी। मन में विचार कुछ और चल रहे हों और वाणी में विचार उसे अन्यथा प्रकट हों और शरीर में हमारी सारी गतिविधियां मन व वाणी के विपरीत चले, तब हमको अपने नानाविध मुखौटे पहनने के लिये विषमताओं एवं विसंगतियों का सहारा लेना पड़ता है और इसी जोड़-तोड़ की उधेड़बुन में, यह सारा जीवन बीत जाता है, हमारी जटिलताएँ निरन्तर बढ़ती जाती हैं, और उसमें जीवन के आनन्द का स्रोत सुख ही नहीं जाता बल्कि उसमें अमृततत्त्व का शोषण होकर, केवल वासना एवं आसक्ति की कीचड़ ही हमारे हाथ लगती है, जिसमें से बाहर निकलने के हर प्रयास के साथ हम उसके दल-दल में फँसते ही जाते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि हम सरलता, सहजता या ऋजुता की ओर बढ़े। मन के विचार, वाणी के उद्गार व शरीर का व्यवहार, सारे एक से बन जाय और हम स्फटिक की तरह बन जाएं व भीतर व बाहर एक से स्वरूप में, हमारा बाह्य व्यवहार व अन्तर् का आकार स्पष्ट हो जाय-इसी में स्वानुभूति प्रकट होती है। चेतना की अन्तर् यात्रा में, हमारे सामने पहला विकट अवरोध स्वयं हमारा मन है। मन की कल्पनाएँ, भाशा-आकांक्षाएँ, तृष्णा-वासनाएँ, अनन्त विचारों के माध्यम से, हमको अपने बारे में सोचने का अवकाश ही नहीं लेने देतीं, हमारे मस्तिष्क में अनगिन वस्तुओं की स्मृति के अम्बार भरे पड़े हैं। इतिहास, भूगोल, साहित्य, कला, विज्ञान आदि अनेक विषयों के बारे में, हमारी सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी करने की अनवरत चेष्टा तो जीवन भर चलती ही रहती है और जो वस्तुएँ, वर्तमान में नहीं है, उन्हें प्राप्त करने व उनकी महत्त्वाकांक्षा रखने, एवं उनके स्वप्न संजोने में, हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण शीघ्रता से बीत जाता है और हम कभी भी एक क्षण रुक जायें तो लगता है कि हम न तो कहीं पहुंच पाये हैं और न कुछ बन ही पाये हैं । विचारों की इस सघन भीड़ को पार करना असंभव नहीं तो दुरूह कार्य अवश्य है । अन्तर् यात्रा में इस पहले अवरोध को पार करना मुश्किल हो जाता है व व्यक्ति विचारों के जबरदस्त हमले से आक्रान्त होकर, अपनी हार मान लेता है और मन से आगे बढ़ने का साहस नहीं कर पाता। इसलिये स्वानुभूति की ओर चरण बढ़ाने में, हमको पहले निर्विचार बनने का अभ्यास करना पड़ेगा। यह तो असम्भव है कि जब तक मन है, तब तक कोई विचार ही न आए, और यह भी हमारे अपने साथ ही निर्ममता होगी कि हम अपना दमन कर, बलात् अपने विचारों को रोकें और विचारों के अतिशय वेग-प्रवाह को एक स्थान पर रोकने के प्रयास की तीन प्रतिक्रिया भी हो सकती है जिसका परिणाम और भी भयंकर हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि जैसे-जैसे हमारे मन में संकल्प-विकल्प जगते रहें, वैसे-वैसे उनको उनके आदिस्रोत की ओर प्रतिक्रमण करते रहें और अपने मन को उनसे खाली करते रहें, ताकि खाली मन में अपनी अनुभूति की चिन्तना उस खाली स्थान को घेर कर, व्यापक बन सके । अतः स्वानुभूति की ओर बढ़ते चरणों को सर्वप्रथम घनीभूत विचारों के आक्रमणकारी कोलाहल करती भीड़ को पार कर निर्विचारिता की तरफ बढ़ना आवश्यक होगा। अन्तर्यात्रा की दिशा में जब विचारों की गहन आततायी भीड़ को पार करने में हम समर्थ हो जाते हैं, तब हमारे सामने अतीत की स्मृतियों की जकड़न एवं भविष्य की आकांक्षाओं का गुरुत्वाकर्षण, हमको आगे व पीछे खींचता हुआ, परिवर्तनशील समय की घाटियों में ला पटकता है, जिससे बाहर निकलना हमारे लिए आसान नहीं हो पाता। विश्व की हर जड़ वस्तु में लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई होती है पर उसमें अस्तित्व नहीं होता, क्योंकि अस्तित्व के लिए समय का होना आवश्यक है और समय ही चेतना की दिशा है । जगत् की सारी ही वस्तुएँ क्षणभंगुर हैं, परिवर्तनशील हैं, पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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