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________________ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-................ स्वानुभूति की ओर : अन्तर्यात्रा 0 श्री सोहनराज कोठारी, [जिला एवं सत्र न्यायाधीश, जयपुर (राजस्थान)] अध्यात्म जगत् में हमारे समग्र व्यक्तित्व की सर्वांग साधना की चरम निष्पत्ति की सर्वमान्य एवं सुगम परिभाषा है-स्वानुभूति” और जिस प्रक्रिया से निकलकर व्यक्ति को स्वयं की अनुभूति का साक्षात्कार एवं मिलन होता है उसे आध्यात्मिक भाषा में 'योग' कहा जाता है-इस योग की प्रक्रिया के लिये विभिन्न प्रकार के प्राणायाम, योग-आसन, ध्यान-मुद्रा आदि अनेक श्रम-साध्य क्रियाएँ अपनी-अपनी रुचि के अनुसार व्यक्ति एवं व्यक्तियों के कई सामूहिक संस्थान अपनाते हैं। चेतना की अनूभूति या स्वयं का बोध, इसमें मेरी बहुत वर्षों से रुचि रही है, पर श्रमसाध्य प्रयोगों में मैं कभी रस नहीं ले पाया, क्योंकि इस विषय पर गहराई से चिन्तन के बाद मेरा अपना चिन्तन यह है कि सम-विषम परिस्थितियों में, मध्यस्थ भाव में रहकर बिना श्रम के यदि हम सारी शक्तियों को गहनतापूर्वक प्रतिक्षण सहजता से अपनी चेतना की ओर या दूसरे शब्दों में स्वयं की खोज में, अतल गहराई की ओर उन्मुख कर सकें, तो हमारी चेतना से मिलन की महायात्रा का प्रारम्भ हो जाती है और निश्चित ही हम चेतना की ओर बढ़ जाते हैं । बाहर के सारे अपने कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी प्रतिपल हमारा चिन्तन यह बन जाना चाहिये कि हम कोई ऐसा कार्य न करें, जिससे हमारी आत्मा कलुषित या मलिन हो जाय, या हमारे विचार, वाणी व प्रवृत्ति का कोई भी अंश, हमारी अन्तर्चेतना को मूच्छित कर दे, या हमारी सजगता या सचेतना जड़ता या सुषुप्ति से आच्छादित हो जाय । बाहर की गंगा या जमना धाराप्रवाह बहती रहे, उसमें कोई आपत्ति नहीं है, पर अन्दर की सरस्वती का अजस्र प्रवाह भी सूख नहीं जाय, इस बात का भी पूरा ध्यान रहे और तभी हमारे शरीर, मन और आत्मा के त्रिवेणी संगम का योग हमारी जीवात्मा को अक्षुण्ण पावन तीर्थस्थली बना सकता है। बाहर के सारे कोलाहल के मध्य भी अन्तर्ध्वनि का नाद प्रतिपल गूंजता रहे, वस्तुओं की रट लगाते रहने पर भी, अन्दर का नि:शब्द 'अजपा जाप' सतत रूप से चलता रहे, पौद्गलिक पदार्थों से प्राप्त संगीत, नृत्य, सुवासना, दाय, रस के साथ-साथ प्राणों का संगीत-स्वासों का नृत्य, रोमरोम में चेतना की छवि, कण-कण में जीवन रस व भावों की सुगन्ध में, हमारी आत्मा अहर्निश प्रतिष्ठापित रहे, तभी हमारी साधना प.लवती हो सकती है और हम अपनी अनुभूति करने में सफल हो सकते हैं। आवश्यक यह है कि सहजता की दिशा में, हमारा ध्यान पूर्णतया व्यापक बन जाए, तन और चेतना जो कि अलग-अलग विरोधी तत्त्व हैं, उन्हें हम तटस्थ एवं साक्षी भाव से अलग-अलग स्वरूप में, दर्शन कर सकें और हमारे शरीर व मन की संवेदना हमारी आत्मा को प्रभावित न कर सके, तभी हम स्वयं को जान सकते हैं, व हमारा स्वयं से मिलन हो सकता है। सन्त भीखणजी ने इसी व्यापक ध्यान के स्वरूप को बहुत ही सहज शब्दों में भाव गाम्भीर्यता प्रकट करते हुए राजस्थानी भाषा में निम्न प्रकट करते हुए राजस्थानी भाषा में निम्नलिखित छोटे से पद में परिलक्षित किया है जे समदृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर् मन न्यारा रहे, ज्यों धाय रमावे बाल ।। ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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