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________________ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -. -. -. -. -. -.-. -. -.-.-." -.-.-.-.-. -. -. -.-. -. जैन धर्म के मूल तत्व : एक परिचय श्री स्वरूपसिंह चूण्डावत, एडवोकेट [उपाध्यक्ष, विद्या प्रचारणी सभा, भूपाल नोबल्स महाविद्यालय, उदयपुर]] जैन धर्म एक अत्यन्त ही प्राचीन धर्म है। प्राचीन ही नहीं, किन्तु एक वैज्ञानिक धर्म भी है। इसकी प्राचीनता, इसका दर्शन, इसकी तर्क-प्रणाली प्राणीमात्र के लिये उपयोगी है। इसमें परिमाणु, अणु इत्यादि ऐसी बातें हैं जिनको आज का आधुनिक विज्ञान भी नये वैज्ञानिक प्रयोगों के साथ लाभान्वित पाता है। इसका जीवन-दर्शन संसार की कई समस्याओं को सुलझाने के लिये आज भी उपयोगी है । इस सबके पीछे उसका एक दर्शन है, उस दर्शन में ही उसके मूल तत्त्व सन्निहित हैं। जैन दर्शन के प्रमुख प्रमेय उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य हैं। उत्पाद का अभिप्राय यह है कि सृष्टि में जो कुछ है वह पहले से ही उत्पन्न है तथा जो नहीं है उससे किसी भी तत्त्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती। व्यय का अर्थ इस बात से है कि प्रत्येक पदार्थ अपने पूर्व पर्याय (रूप) को छोड़ कर क्षण-क्षण नवीन पर्यायों को धारण कर रहा है और ध्रौव्य यह विश्वास है कि पदार्थों के रूपान्तर की यह प्रक्रिया सनातन है, उसका कभी भी अवरोध या नाश नहीं होता । वह उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य इस प्रकार विलक्षण है। कोई भी पदार्थ चेतन हो या अचेतन इस नियम का अपवाद नहीं है। जैन धर्म यह मानता है कि सृष्टि अनादि है और वह जिन छह तत्त्वों से बनी है, वे तत्त्व भी अनादि हैं। वे छह तत्त्व हैं-(१) जीव, (२) पुद्गल, (३) धर्म, (४) अधर्म, (५) आकाश व (६) काल । इन छह तत्त्वों में केवल पुद्गल ही ऐसा तत्त्व है जिसका हम रूप देख सकते हैं बाकी सभी ऐसे हैं जो अमूर्त हैं ; जो रूपवान नहीं हैं। इन छ: तत्त्वों में जीव ही एक ऐसा है जो चेतन है बाकी ५ तत्त्व निर्जीव हैं, अचेतन हैं। तीसरी बात यह है कि संसार में जीव पुद्गल के बिना ठहर नहीं सकता। पुद्गल के सहवास से उसको छुटकारा तब मिलता है जब वह संसार के बन्धनों से छूट जाता है । असल में जीव के जैन दर्शन में वही गुण हैं जो आत्मा के लिये वेदान्त में कहे गये हैं। जो मूर्त द्रव्य अर्थात् पुद्गल है वह परमाणुओं के योग से बना है और यह सारी सृष्टि ही परमाणुओं का समन्वित रूप है। जीव व पुद्गल मुख्य द्रव्य हैं क्योंकि उन्हीं के मिलन से यह सृष्टि में जीवन देखने में आता है। आकाश वह स्थान है जिसमें सृष्टि ठहरी हुई है । जीव व पुद्गल में गति कहाँ से आती है, इसका रहस्य समझाने के लिये धर्म की कल्पना की गई है । धर्म वह अवस्था है जिसमें जीव व पुद्गल को गति मिलती है। धर्म उसको सम्भव बनाता है। इसी प्रकार चलने वाली चीज जब ठहरना चाहती है तब कोई न कोई आधार चाहिए। सक्रिय द्रव्य के ठहरने को संभव बनाने वाला गुण ही अधर्म है। धर्म व अधर्म वे गुण हैं जो विश्व को क्रमश: गति-स्थितिशील रखते हैं और उसे अव्यवस्था में गिरफ्तार होने से बचाते हैं । काल की कल्पना इसलिए की गई है कि जैन धर्म संसार को माया नहीं मानता, जैसे शांकर मत में वह माना जाता है। संसार सत्य है और इसमें परिवर्तन होते रहते हैं। इस परिवर्तन का आधार काल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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