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________________ - ---. -. -.-.-.-.-.-. -. -.-.-. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-...-. -.-.-.-.-.-.-. आत्म : स्वरूप-विवेचन श्री राजेन्द्र मुनि, साहित्य-रत्न [श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री के शिष्य आज विज्ञान समस्त दृश्यमान और भौतिक अस्तित्ववारी पदार्थों को दो वर्गों में विभक्त कर अध्ययन करता है-एक सजीव है और दूसरा वर्ग निर्जीव है । भारतीय चिन्तनधारा में भी अनादि काल से इसी प्रकार का वर्गीकरण रहा है.--चेतन और अचेतन । विज्ञान के सजीव और निर्जीव के लक्षणों का जो विवेचन किया गया है, उसका चेतन और अचेतन के साथ समीपता और सादृश्य का सम्बन्ध भी है, भारतीय दर्शनानुसार चेतन में ज्ञान, दर्शन, सुख, स्मृति, वीर्य आदि गुण पाये जाते हैं और अचेतन के गुण हैं- स्पर्श, रस, गन्ध वर्णादि । चेतन तत्त्व के रहस्य के उद्घाटन की प्रवृत्ति मनुष्य में अति आरम्भ से ही रही है। व्यक्ति सामान्यतः यह नहीं समझ पाता है कि जब वह 'मैं' शब्द का प्रयोग करता है तो यह 'मैं' किसका प्रतिनिधि है ? क्या मैं का अर्थ उच्चारणकर्ता के शरीर से है ? व्यक्ति इतना तो समझ सकता है कि यह शरीर “मैं” नहीं है, किन्तु फिर यह 'मैं' कौन है ? यह जिज्ञासा बनी ही रहती है। मानव की इस सहज जिज्ञासा प्रवृत्ति का उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। इस सम्बन्ध में इतना कहा जा सकता है कि यह चेतन तत्त्व है, जो मैं का प्रतीक बनाकर अभिव्यक्त होता रहता है । यह विश्व भी अनेक अद्भुतताओं का अनुपम समुच्चय है । यह धरती, यह समुद्र, ये विविध ऋतुक्रम, पुष्प, पल्लव, फल, लता, द्रुमादि का यह वनस्पतिक वैभव यह सब क्या है ? किसने इन्हें रचा और कौन इसका संचालक है ? ऐसे-ऐसे अनेक रहस्यात्मक प्रश्न मानव-मन में घुमड़ते रहे हैं । इस वैविध्ययुक्त जगत् का मूलतत्त्व सचेतन है अथवा अचेतन ? सत् है अथवा असत् ? इन प्रश्नों पर चिन्तन-मनन होता रहा । वेद-उपनिषदादि के दृष्टिकोण को समझा जाने लगा और विभिन्न चिन्तन-धाराओं के विचारकों दार्शनिकों ने इस परिप्रेक्ष्य में नव-नवीन उद्भावनाएँ भी की। परिणामतः कतिपय दृष्टिकोणों ने चिन्तन-क्षेत्र में स्थान पाया। सचेतन का मूलतत्त्व आत्मा ही है, जागतिक पदार्थों में आत्मा का एक विशिष्ट स्थान है और उसकी अन्य पदार्थों से भिन्न विशेषता यह है कि आत्मा अमर है, अनश्वर है, नित्य है । आत्मा के सूक्ष्म अस्तित्व का अनुभव व्यक्ति स्वयं अपने भीतर ही किया करता है। उपनिषदों में इस आत्मतत्त्व का विवेचन-विश्लेषण प्राप्त होता है। जैन दर्शन भी इस दिशा में सक्रिय रहा है। जैन दर्शन ने उपनिषदों के आत्मा के स्वरूप का अध्ययन कर स्वचिन्तन के आधार पर उसे पृथक् स्वरूप में स्वीकारा है। उपनिषदों में उल्लिखित आत्मा के स्वरूप को सामान्यतः जैन दर्शन स्वीकृति देते हुए भी सुख-दुःख के दृष्टिकोण से असहमत है । उपनिषदों के अनुसार आत्मा निर्विकार है। सुख-दुःख की अनुभूति से वह परे है। यह तो शरीर है जो कभी सुखों का तो कभी दु:खों का अनुभव करता है । जैन दर्शन इससे भिन्न दृष्टिकोण रखता है। पंचाध्यायी के अनुसार जैन दर्शन के निष्कर्ष को इस प्रकार प्रस्तुत किया सकता है कि आत्मा का मूलगुण आनन्द है, किन्तु कर्म-संयोग के अनुरूप वह विकृत रूप में सुख-दुःखादि की अनुभूति करता है। एक और भी मौलिक अन्तर द्रष्टव्य है-उपनिषदों में आत्मा को परमात्मा का ही अंश स्वीकारा गया है। ब्रह्म का यह अंश अपने मूल से पृथक् होकर आत्मा रूप धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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