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________________ जैन दर्शन और ईश्वर की परिकल्पना २११ आत्मा देव-देवालय में नहीं है, पाषाण की प्रतिमा में भी नहीं है, लेप तथा मूर्ति में भी नहीं है । वह देव अक्षय अविनाशी है, कर्म फल से रहित है, ज्ञान से पूर्ण है, समभाव में स्थित है।' जैसा कर्मरहित, केवलज्ञानादि से युक्त प्रकट कार्य समयसार सिद्ध परमात्मा परम आराध्य देव मुक्ति में रहता है वैसा ही सब लक्षणों से युक्त शक्ति रूप कारण परमात्मा इस देह में रहता है। तू सिद्ध भगवान् और अपने में भेद मत कर । हे पुरुष ! तू अपने आप का निग्रह कर, स्वयं के निग्रह से ही तू समस्त दुःखों से मुक्त हो जायेगा। हे जीव ! देह का जरा-मरण देखकर भय मत कर । जो अजर अमर परम ब्रह्म है उसे ही अपना मान । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव का लक्ष्य परब्रह्मत्व अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त करना है । जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा है। इस प्रकार मैं ही स्वयं अपना उपास्य हूँ । अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है। जो व्यवहारदृष्टि से देह रूपी देवालय में निवास करता है और परमार्थत: देह से भिन्न है वह मेरा उपास्यदेव अनादि अनन्त है । वह केवलज्ञान स्वभावी है। नि:संदेह वही अचलित स्वरूप कारण परमात्मा है। कारण-परमात्मास्वरूप इस परमतत्त्व की उपासना करने से यह कर्मोपाधियुक्त जीवात्मा ही परमात्मा हो जाता है जिस प्रकार बांस का वृक्ष अपने को अपने से रगड़ कर स्वयं अग्नि रूप हो जाता है। उस परमात्मा को जब केवलज्ञान उत्पन्न होता है, योग निरोध के द्वारा समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं, जब वह लोक शिखर पर सिद्धालय में जा बसता है तब उसमें ही वह कारण-परमात्मा व्यक्त हो जाता है। जैन दर्शन की सृष्टि व्यवस्था के सम्बन्ध में ईश्वर की कर्तृत्व शक्ति का निषेध तथा सर्वव्यापक एक परमात्मा के स्थान पर प्रत्येक जीव का मुक्त हो जाने पर कार्य-परमात्मा बन जाने सम्बन्धी विचारधारा का प्रभाव परवर्ती दार्शनिक सम्प्रदायों पर पड़ा है। वस्तुतः स्वभाव एवं कर्म इन दो शक्तियों के अतिरिक्त शरीर, इन्द्रिय एवं जगत के कारण रूप में ईश्वर नामक किसी अन्य सत्ता की कल्पना व्यर्थ है। १. देउ ण देवले णवि सिलए णवि लिप्पई णवि चित्ति । अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिय समचिति ।।--परमात्मप्रकाश, १२३. २. हउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ वभुं परु देह हं मं करि पेउ ॥-परमात्मप्रकाश, २६. ३. पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि ।-आचारागं ३।३।११६. ४. देह हो पिक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि । जो अजरामरु बंभु परुसो आपाण मुरोहि ।।-पाहुड दोहा १।३३. (मुनि रामसिंह) ५. यः परमात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।।-समाधिशतक, ३१ (पूज्यपाद) ६. देह देवलि जो वसई देउ अणाइ अणंतु । केवलणाणफुरंततणु, सो परमप्पु णिभंतु ॥-परमात्मप्रकाश ११३३ (योगीन्दु देव) उपास्यमानमेवात्मा जायते परमोऽथवा । मथित्वात्मानमात्वमैव जायते ग्निर्यथा तरुः॥-समाधिशतक (पूज्यपाद) ८. ज्ञानं केवलसंज्ञ योगनिरोध: समग्रकर्महतिः । सिद्धिनिवासश्च यदा, परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ।।-अध्यात्म सार २०१२४ (उपाध्याय यशोविजय) ६. तदनुकरण भुवनादौ निमित्त कारणत्वादीश्वरस्य न चैतद् सिद्ध्यः ।-आप्त परीक्षा ११५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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