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________________ सेवा : आत्म-कल्याण भी, लोक-कल्याणक भी ___- डॉ. नरेन्द्र भानावत (हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर) संसार में चार बातें प्राणी के लिये बड़ी दुर्लभ कही गई हैं। वे हैं-पनुष्य-जन्म, धर्म का श्रवण, दृढ़ श्रद्धा और संयम में पराक्रम ।' मनुष्य-जन्म अनन्त पुण्यों का फल है। यह मिल जाने पर भी यदि शेष बातें नहीं मिलतीं तो मानव-जन्म सार्थक नहीं हो पाता। इसके लिए सत्संग और समाज का संस्कार मिलना आवश्यक है। मनुष्य जन्म लेने के बाद अपने शारीरिक और मानसिक विकास के लिए समाज पर निर्भर रहता है। व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध सहयोग और सेवा-भाव पर निर्भर है । इस दृष्टि से सेवा-भावना सामाजिकता का आधार है। ___ ज्यों-ज्यों प्राणी में इन्द्रियों का विकास होता जाता है । त्यों-त्यों उसमें सहयोग की भावना का बढ़ती जाती है। एक इन्द्रिय वाले प्राणी की अपेक्षा पंचेन्द्रिय में सहयोग भावनों का यह अभिवृद्ध रूप देखा जा सकता है । सेवा-भावना का स्रोत तभी फूटता है जब व्यक्ति में दूसरों को अपने समान समझने की भावना का उदय होता है। हमारी आत्मा जैसे हमें प्रिय है, वैसे ही दूसरे की आत्मा उसे प्रिय है । ऐसा समझकर, संसार के सभी प्राणियों के प्रति मित्रता स्थापित कर, उनके दुःख को दूर करने में सहयोगी बनना सेवाधर्म का मूल है। जब व्यक्ति अपने अहंकार को भूलकर, मन और वचन में सरलता लाता है तभी वह सेवा के क्षेत्र में सक्रिय बन पाता है । 'सेवा' शब्द 'से' और 'वा' से बना है। 'से' का अर्थ है सेंचन करना और वा' का अर्थ वारण करना । सेवा के दो मुख्य कार्य हैं । एक तो दूसरे के कार्य में सहयोगी बनकर उसके कार्य को पूरा करना अर्थात् उसके कार्य को सिंचित करना और दूसरा उसके कार्य या जीवन-निर्वाह में जो बाधाएँ हैं उन्हें दूर करना, उनका निवारण कुरना। इस प्रकार सेवाधर्म जीवनरक्षा का धर्म है। इस धर्म का निर्वाह उत्तम रूप से तभी किया जा सकता है जब व्यक्ति दूसरों के दु:ख को दूर करने या हल्का करने में अपने सुख का त्याग करे । त्याग-भावना के विना तेवाधर्म का निर्वाह नहीं हो सकता। त्याग भावना चित्त की निर्मल वृत्ति है ! जब व्यक्ति कवाय भावों का त्याग कर सेवा में प्रवृत्त होता है तब उसमें सेवा के बदले यश, मान, प्रतिष्ठा आदि कुछ भी पाने का भाव नहीं रहता । पर जब ये कषाय भाव नहीं छूटते तब जो सेवा की जाती है उसमें प्रदर्शन और सम्मान पाने की भावना रहने से वह व्यवसाय का रूप धारण कर लेती है। आज सेवा का यह व्यवसायीकरण धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक संस्थाओं व पार्टियों में बढ़ता जा रहा है। 'उत्तराध्ययन' सूत्र के २६ वें अध्ययन 'सम्यक्त्व पराक्रम' में गौतम स्वामी भगवान् महावीर से पूछते हैं कि हे भगवन् ! वैयावृत्य अर्थात् सेवा करने से जीव को क्या लाभ होता है ? भगवान उत्तर में फरमाते हैं कि वैयावृत्त्य अर्थात् सेवा करने से जीव को तीर्थंकरनामकर्म का बंध होता है ? तीर्थंकरत्व जीव की वह उच्चतम अवस्था है जब आत्मा की ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बल आदि की समस्त शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं और जन्म-मरण के १. चत्तारि परमंगाणि, दुल्लाहाणीह, जंतुणो । माणुसत्त सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ ---उत्तराध्ययन सूत्र ३१ - . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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