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________________ नारी-शिक्षा का महत्त्व ६३ . के इन उदात्त विचारों का हृदय से स्वागत किया, जिसके फलस्वरूप नारी ने घर के समग्र दायित्वों का सम्यक निर्वहन कर शिक्षा के क्षेत्र में अपना चरण-विन्यास किया। स्कूलों, विश्वविद्यालयों, चिकित्सा केन्द्रों तथा अन्य सभी संगीत नाट्य-प्रतियोगिताओं में आशातीत नैपुण्य व साफल्य प्राप्त कर सर्वाधिक प्रतिभा का सर्वतोभावेन विकास किया। यह विकास का क्षेत्र उसका तब खुला कि जब उसे बन्धन की कारा से मुक्त बनने का अवसर मिला । कुण्ठाओं को परास्त कर वह स्वायत्ततामय जीवन जीने लगी। उसकी इस प्रसन्नता को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता । उसने जितनी यातनाएँ-पीड़ाएँ सहीं, उसकी पृष्ठभूमि में पुरुष और नारी के पारस्परिक सम्बन्ध को सुरक्षित बनाए रखने का ही एक मात्र हेतु परिलक्षित होता है। इतना होने के बावजूद भी पुरुष स्त्री की वात्सल्यमयी भावनाओं को ठुकराता रहा है। ___ कामायनी में एक प्रसंग आता है---मनु और श्रद्धा का । मनु अपने पुरुषत्व के अभिमान में श्रद्धा को अकेली असहाय छोड़कर चले जाते हैं । वह अपनी हृदयगत भावनाओं को इस प्रकार चित्रित करती है तुम भूल गये पुरुषत्व मोह में, कुछ सत्ता है नारी की। समरसता सम्बन्ध बनी, अधिकार और अधिकारी की ।। वह अपने प्रियतम को पुकारकार कहती है कि मुझे भी विधाता ने आधा अधिकार प्रदान किया है। इसीलिये तो मुझे अर्धाङ्गिनी कहते हैं। एक कवि ने अपने मार्मिक शब्दों में कहा है-- न ह्य केन चक्रेण, रथस्य गतिर्भवेत् । संसाररूपी रथ के दो पहिये होते हैं-स्त्री और पुरुष । अगर एक पहिये में कुछ त्रुटि हुई कि रथ लड़खड़ाने लग जायेगा । अपने गन्तव्य स्थल पर सम्यक्तया नहीं पहुँच सकेगा। अतः वह अपने उत्तरदायित्वों को पूर्णतया निभा सके तथा अपने गार्हस्थ्य जीवन को सन्तुलित बनाये रख सके-इसीलिए ही नारी-शिक्षा का होना अत्यन्त अपेक्षित है; क्योंकि बालक एवं बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ माँ के स्नेहिल हृदय से ही होता है । अगर वह स्वयं अशिक्षिता होगी तो अपनी संतानों को कैसे शिक्षित बना सकेगी। मेजिनी के शब्दों में "The lesson of the child begins between the father's laps and mother's knees." आप इतिवृत्त के पृष्ठों को पढ़िये । जितने भी महापुरुष इस वसुन्धरा पर अवतरित हुए, वे सब माताओं की गोद से ही अवतरित हुए हैं, न कि आकाश से टपके हैं। आकाश से उतरने का तो प्रश्न ही निराधार होगा। उनका लालन-पालन, शिक्षा-संस्कार आदि कार्यों में माताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । वे उनमें सदैव पवित्र विचारों की गंगा प्रवाहित करती रही है। महात्मा गांधी ने स्वाभिमान के साथ कहा कि-भारतीय धर्म अगर जीवित रहा तो एक मात्र स्त्रियों के कारण ही जीवित रहा वरना वह कभी का लुप्त हो जाता। जहाँ का धर्म जीवित है वहाँ का नैतिक व चारित्रिक धरातल तो स्वतः ही समृद्ध हो जाता है। संस्कृति के गौरव को अगर किसी ने सुरक्षित रखा है तो भारत की माताओं का शील व चारित्रिक बल ही इसका मुख्य आधेय है। यहीं से सुख का सूर्य प्रज्वलित हुआ है और यहीं से आनन्द का स्रोत प्रवहमान हुआ है। श्रमण भगवान महावीर की वाणी से भी यही धारा फूट पड़ी कि जितने आध्यात्मिक अधिकार पुरुषों को प्राप्त हैं उतने ही स्त्रीवर्ग को भी। उन्होंने धामिक भेद-रेखा को परिसमाप्त कर दिया। उसी के फलस्वरूप उनकी शिष्य-परम्परा में जितनी संख्या श्रमणों की थी, उससे अधिक संख्या श्रमणियों की थी। उन्होंने स्त्रियों को मोक्ष का मुक्तभाव से अधिकार दिया। जबकि गौतम बुद्ध ने स्त्रियों को संन्यास देना अपने धर्मसंघ की मर्यादा के प्रतिकूल माना। उनकी संकीर्ण वृत्ति स्पष्टतः प्रतिभासित होती है। नारी को उन्होंने शौर्यहीन, पराक्रमहीन समझकर धर्म-क्रान्ति करने एवं अपना आत्मोत्थान करने से सर्वथा वंचित रखा। आप इतिवृत्त के परिप्रेक्ष्य में पायेंगे कि स्त्रियों व साध्वियों ने अपने शील की रक्षा हेतु प्राणों का बलिदान कर दिया जबकि पुरुषों का चरित्र-बल कुछ निम्न स्तर का रहा । स्त्रियों ने शास्त्रार्थ करने में भी अपनी प्रकृति-प्रदत्त बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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